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________________ संसारमावना का स्वरूप विभिन्न चेष्टाएं करता है। कभी वेदपाठी श्रोत्रिय बनता है, कभी चाण्डाल, कमी सेवक, कभी प्रजापति (ब्रह्मा) बनता है, और कभी कीड़ा बनता है। भावार्ष-जैसे नाटककार भिन्न-भिन्न वेष बदल कर नाट्यमंच पर आता है, वैसे ही संसारी जीव भी विचित्र कर्मरूपी उपाधि के कारण विविध शरीरों को धारण करके संसार के रंगमंच पर आता है और नाटक का पार्ट अदा करता है। जो वेदगामी ब्राह्मण था, वही कर्मानुसार चांडाल बनता है, और जो स्वामी था, वह मर कर सेवक के रूप में पैदा होता है, जो प्रजापति था, वह कीट के रूप में जन्म लेता है। आश्चर्य है संसार की इस विचित्रता को देख कर ! परमार्थदृष्टि से तो उसका आत्मा का) रूप इस प्रकार का नही है। न याति कतमा योनि, कतमां वा न मुञ्चति । संसारी कर्मसम्बन्धादवक्रयकुटोमिव ॥६६॥ अर्थ- संसार में परिभ्रमण करता हुआ जीव कर्म के संयोग से किराये को कुटिया के समान किस योनि में नहीं जाता और किस योनि को नहीं छोड़ता? भावार्थ-मतलब यह है कि जीव समस्त योनियों में जन्म लेता है और मरता है । इस संसार में एकेन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय तक की ८४ लाख जीवयोनियों में से ऐसी कोई योनि नहीं, जहाँ संसारी जीव न गया हो, अथवा जिम योनि को न छोड़ा हो। जैसे गृहस्थ किराये पर कोई झोपड़ी लेता है, और जरूरत न होने पर उसे छोड़ देता हैं, वैमे हो संसारीजीव को कर्मों के सम्बन्ध से शरीर भी कुछ असे तक मिलता है, किन्तु कर्म भोगने के बाद उस योनि को छोड़ देता है और दूसरी योनि प्रहण कर लेता है। समय पा कर उस योनि को भी छोड़ देता है। किन्तु किसी एक नियत योनि को पकड़े नहीं रखता। समग्रलोकाकाशेऽपि नानारूपः स्वकर्मतः । बालाप्रमपि तन्नास्ति यन्न स्पृष्टं शरीरिभिः ॥६॥ अर्थ-समप्र लोकाकाश में बाल की नोक पर आए, इतना स्थान भी नहीं बचा है। जिसे शरीरधारियों ने अपने विविध कर्मों के उदय से नानारूप में जन्म-मरण पा कर स्पर्श न किया हो। व्याख्या-आकाश दो प्रकार का है-लोकाकाश और अलोकाकाश | जिसमें धर्मास्तिकाय. अधर्मास्तिकाय, आकाश काल, पुदगल और जीव ये ६ द्रव्य विद्यमान हों, उमे लोकाकाश और जिसमें ये न हों, उसे अलोकाकाश कहते हैं। कहा भी है - 'धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों की प्रवृत्ति जिस क्षेत्र में हो, उस द्रव्यसहित क्षेत्र को लोक और इससे विपरीत हो, उसे अलोक कहते हैं।' सूक्ष्म, बादर, साधारण और प्रत्येकरूप एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय आदि भिन्न-भिन्न इन्द्रियों वाले जीवों में संसारीजीव अपने-अपने कर्मानुसार स्वतः जन्म-मरण करते रहते हैं। इसमें ईश्वर आदि की कोई प्रेरणा नहीं है। अन्य दार्शनिकों ने कहा-'यह अज्ञानी जीव अपने सुख-दुःखरूप कर्म-फल को स्वयं भोगने में असमर्थ होता है, इसलिए वह ईश्वर से प्रेरित हो कर स्वर्ग या नरक में जाता है।' इसमें ईश्वर की प्रेरणा और कर्मों की फलनिरपेक्षता माने तो विश्व के इन विविध रूपों का स्वतंत्र
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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