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________________ ४६. योगशास्त्र : चतुर्व प्रकाश अब अशरणभावना का उपसंहार करते हैं संसारे दुःखदावाग्नि-ज्वलज्ज्वालाकरालिते। बने मृगार्मकस्येव शरणं नास्ति देहिनः ॥६४॥ अर्थ-चन में सिंह का आक्रमण होने पर हिरन के बच्चे को कोई भी बचा नहीं सकता ; इसी प्रकार दुःखरूपी दावाग्नि की जाज्वल्यमान भीषण ज्वालाओं से जलते हुए संसार में जीव को बचाने वाला कोई नहीं है। व्याख्या-यह है बशरण भावना का स्वरूप ! इस सम्बन्ध में कुछ आंतरपलोकों का भावार्थ प्रस्तुत हैं-'अष्टांग मायुर्वेद के विशेषज्ञ, औषध, या मृत्युजय आदि मन्त्र कोई भी मृत्यु से बचा नहीं सकते । चारों ओर से नंगी तलवारों का पींजरा हो और उसमें चारों ओर चतुरगिणी सेना से घिरा हुमा राजा सुरक्षित बैठा हो, फिर भी यम के सेवक उसे रंक के समान जबरन खीच ले जाते हैं। जलाशय के बीचोबीच बनाए हुए स्तम्भ के ऊपरी भाग में एक पीजरा था, उसमें एक राजा ने अपने प्रिय पुत्र को मृत्यु से बचाने के लिए सुरक्षित रखा था, किन्तु वहां से भी मृत्यु खींच कर ले गई तो फिर दूसरों का तो कहना ही क्या? सगर चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्र थे; लेकिन उन शरणरहित पुत्री को ज्वलनप्रम देव ने क्षणभर में तिनके की तरह एकदम जला कर भस्म कर दिया । स्कन्दकाचार्य की आँखो के सामने ही उनके पांचसौ शिष्यों को यमराजतुल्य पालक पुरोहित कोल्हू में पीर कर मार रहा था, तब उनका शरणदाता कोई भी नहीं हुआ। जैसे पशु मृत्यु के प्रतीकार का उपाय नहीं जानता, उसी प्रकार पण्डित भी मृत्यु के प्रतीकार का उपाय नहीं जानता। धिक्कार है, ऐसी मूढ़ता को ! दुनिया मे ऐसे-ऐसे पराक्रमी पुरुष हुए हैं, जिन्होंने अपनी तलवार के बल पर सारी दुनियां को निष्कंटक बना दिया था, लेकिन वे ही शूरवीर यमराज की तनी हुई प्रकुटि देख कर भय से दातों तले उ गली दबा लेते थे ! इन्द्र भी जिसे स्नेहपूर्वक बालिंगन करके अपने आधे आसन पर बिठाते थे, वह श्रेणिक राजा भी अन्तिम ममय में शरणरहित होगया था । ऐसी दुर्दशा हो गई कि सुनी भी न जा सके । तलवार की धार पर चलने के ममान महाव्रतों का पालन करने वाले पवित्र मुनि ; जिन्होंने अपने जीवन में जरा भी पापकर्म नहीं किया ; वे भी मृत्यु का प्रतीकार करने में असमर्थ रहे। वास्तव में यह संसार अशरणरूप है, पर.जक है, अनाथ है, अनायक है, इसमें मृत्यु का कोई भी प्रतीकार नहीं कर सकता, यह यमराज का कौर बन रहा है । धर्म को प्रतीकाररूप माना जाता है, मगर वह भी मृत्यु का प्रतीकार नहीं है । वह शुभगति का दाता या शुभगति का कर्ता माना जाता है। इस प्रकार तीनों लोकों में भयंकर यमराज उघडक हो कर ब्रह्मा से ले कर चींटी तक के तमाम जीवों से परिपूर्ण समग्र जगत् को कलित करने से नहीं थकता । खेद है कि सारा जगत् इसमे परेशान हो रहा है। अतः धर्म की शरण स्वीकार करो।" इस प्रकार अशरणभावना का वर्णन किया। अब तीन श्लोकों में संसार भावना का स्वरूप बताते हैं श्रोत्रियः श्वपचः स्वामी, पत्तिह्मा कृमिश्च सः। संसारे नाट्ये नटवत् संसारी हन्त ! चेष्टते ॥६५।। अर्थ-अफसोस है, इस संसाररूपी नाट्यशाला में नट की तरह संसारी जीव
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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