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________________ समभाव की महिमा साम्यसुख का तो अपलाप नहीं कर सकेगा । कवियों के प्रलाप में मस्त बन कर उस कल्पित अमृत में क्यों मूढ़ बना है ? अरे मूढ़ ! आत्म-संवेद्यरसरूपी साम्यामृत के रसायन का पान कर। खाने योग्य, चाटने योग्य, पीने योग्य और चूसने योग्य रसों से विमुख बने हुए भी साधु भो बार-बार स्वेच्छा से साम्यामृतरस का पान करते हैं । गले में सरं लिपटा हो या कल्पवृक्ष के पुष्षों की माला पड़ी हो; फिर भी जिसे अप्रीति या प्रीति नहीं होती, वही समता का धनी है। साम्य कोई गूढ़ पदार्थ या किसी आचार्य द्वारा देय मुष्टिरूप उपदेश अथवा और कुछ भी नहीं है। बालक हो या पण्डित ; दोनों के भवरोग मिटाने के लिए साम्य एक तीसरी औषधि है । शान्त योगी जो अत्यन्त क्रूर कर्म करते हैं, वे भी साम्य-शस्त्र से रागादि-परिवार को नष्ट करते हैं । समभाव का यह परम प्रभाव तुम भी प्राप्त करो!, जो पापियों को भी क्षणभर में परमस्थान प्राप्त कराता है । उसी समभाव की उपस्थिति में रत्नत्रय की सफलता है, किन्तु उसके अभाव में निष्फलता है। ऐसे महाबलवान उस समभाव को नमस्कार हो ! समस्त शास्त्रों और उनके अर्थों का अवगाहन करने के बाद उच्चस्वर से चिल्ला-चिल्ला कर हम तुम्हें कहते हैं कि इस लोक में अथवा परलोक में अपने को या दूसरों को साम्य के बिना और कोई सुख देने वाला नहीं है। उपसर्ग के अवसर पर या मृत्यु के समय इस कालोचित साम्य के बिना और कोई उपाय नहीं है, शान्ति का । राग-द्वेष आदि शत्रओं का नाश करने में निपुण अनेक प्राणियों ने साम्य-साम्राज्य-लक्ष्मी का उपभोग करके शाश्वत शुभगति और उत्तम पदवी प्राप्त की है। इस कारण इस मनुष्यजन्म को सफल करने का इच्छुक साधक निःसीम सुखसमूह से परिपूर्ण इस साम्य-समभाव को प्राप्त करने में प्रमाद न करे।" यहां शंका होती है कि सभी दोषों के निवारण का कारण समत्व है, इसे जान कर तो हमें प्रसन्नता है, किन्तु यदि उस साम्य का प्रतिरोधी कोई उपाय हो और उस उपाय के निवारण का भी दूसरा उपाय हो, एव उसे हम सहजमाव से कर सकें, तो हम निराकांक्ष हो कर आनन्द का अनुभव कर सकेंगे। इसका समाधान मन में सोच कर दो श्लोकों में करते हैं साम्य स्यात् निर्ममत्वेन तत्कृते भावनाः श्रयेत् । अनित्यताशरणभवमेकत्वमन्यताम् ॥५॥ अशौचमाश्रवविधि, सवरं कर्मनिर्जराम् । धर्मस्वाख्याततां लोकं, द्वादशी बोधिभावनाम् ॥५६॥ अर्थ एवं व्याख्या -पूर्वोक्त साम्य ममत्वरहित होने से होता है। प्रश्न होता है कि साम्य और निर्ममत्व में क्या अन्तर है? उत्तर देते है-साम्य राग, और द्वेष इन दोनों का विरोधी-प्रतिपक्षाभूत है ; जबकि निर्ममत्व सिर्फ राग का विरोधी है । इसलिए दोनों को रोकने के लिए साम्य कहा है । अतः शक्तिशाली राग का विनाश करने वाला निर्ममत्व उपाय मी साम्य में समाविष्ट हो जाता है । जैसे बलवान् सन्य हो, उसमें किसी बलवान् का विनाश हो गया हो तो, दूसरों का भी विनाश करने में कठिनता नहीं होती ; इसी तरह संग के निग्रह का प्रधानहेतु निर्ममत्व है, वही हीनबल वाले देषादि के विनाश के लिए हो सकता है । अधिक क्या कहें ! निर्ममत्व का उपाय बताते हैं निर्ममत्वभाव जागृत करने के लिए योगी को अनुप्रेक्षाओं-भावनाओं का आलम्बन लेना चाहिए। उन बारह भावनाओं के नाम इस प्रकार है(१) अनित्यभावना (२) अशरणभावना (३) संसारभावना (७) एकत्वभावना (५) अन्यत्वभावना (६)
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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