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________________ योगशास्त्र : चतुर्ष प्रकाश रागाध्विान्तविध्वंसे, कृते सामायिकांशुना। स्वस्मिन् स्वल्पं पश्यन्ति योगिनः परमात्मनः ॥५३॥ अर्थ-सामायिकरूपी सूर्य के द्वारा राग, देष और मोह का अन्धकार नष्ट कर देने पर योगी पुरुष अपनी आत्मा में परमात्म-स्वरूप का दर्शन कर लेते हैं। व्याख्या-आत्मस्वरूप का निरोध करने वाले होने से रागादि ही अन्धकार हैं। उनका नाश सामायिकरूपी सूर्य से होता है। अतः प्रत्येक बात्मा में स्वाभाविकरूप से परमात्मस्वरूप निहित है; उस स्वरूप को तब योगीपुरुष देखने लगते हैं। वास्तव में विचार करें तो सभी बात्मा परमात्मस्वरूप ही है। प्रत्येक आत्मा में केवलमान का अंश निहित है। मागम में परममहर्षियों ने कहा है-'सब्यजीवाचं पिम अक्सरसागंतभागो निबुग्धारिलो चेव ।' अर्थात् सभी जीवों में अक्षर का अनन्तवा भाग नित्य बनावृत खुला रहता है। सिर्फ रागादि दोषों से कलुषित होने के कारण ही आत्मा में साक्षात् परमात्म. स्वरूप प्रगट नहीं होता। सामायिकरूपी सूर्य का प्रकाश होने से रागादि-अंधकार दूर हो जाता है और बात्मा में परमात्म-स्वरूप प्रगट हो जाता है। अब समता के प्रभाव का वर्णन करते हैं स्निह्यन्ति जन्तवो नित्यं, वैरिणोऽपि परस्परम् । अपि स्वार्थकृते साम्यभाजः साधोः प्रमावतः ॥५४॥ अर्थ यद्यपि साधु अपने स्वार्थ के लिए समत्व का सेवन करते हैं, फिर भी समभाव की महिमा ऐसी अवमत है कि उसके प्रभाव से नित्य बैर रखने वाले सर्प-नकुल से जीव भी परस्पर प्रेम-भाव धारण कर लेते हैं । व्याख्या-कहने का तात्पर्य यह है कि समभाव का ऐसा प्रभाव है कि चाहे साधक ने अपने लिये सममाव किया; मगर नित्यशत्रु भी परस्पर मैत्रीभाव रखने लगते हैं । इसलिए पंडितजन स्तुति करते हैं कि "देव ! हाथी केसरीसिंह के पैर को सूर से खींच कर अपने कपोल-स्थल के साथ खुजलाता है. सर्प नेवले के मार्ग को रोक कर बड़ा रहता है. सिंह विशाल गफा के समान मह फाडे तैयार रहता है; किन्तु मृग बार-बार विश्वास से उसे सूघता है। जहां ऐसे कर पशु भी शान्तचित्त हो जाते हैं, ऐसे सभी के साम्यस्थान-समवसरणभूमि की मैं प्रार्थना स्तति करता है। लेकिन शास्त्रों ने भी साम्य. युक्त योगी की स्तुति इस प्रकार की है। योगियों के पास जाने से वर छूट जाता है। इस विषय के मान्तरपलोकों का भावार्थ कहते हैं-"चेतन और अचेतन पदार्थ में, इष्ट बौर अनिष्ट में जिसका मन नहीं मुर्माता उसे साम्य कहते हैं । कोई आ कर गोशीर्ष-चन्दन से शरीर पर लेप करे अथवा कोई शस्त्र से भूगानों का छेदन करे ; फिर भी चित्तवृत्ति रागढेष से रहित रहे, उसे अनुत्तर साम्य कहते हैं। कोई स्तुति करे, तो उस पर प्रीति न हो, और कोई श्राप दे .. निंदा करे तो उस पर द्वेष न हो, परन्तु दोनों के प्रति जिसका चित्त समान रहे, वही साधक साम्य का अवगाहन करता है। इसमें किसी प्रकार का हवन, तप अथवा दान करना नहीं पड़ता। वस्तुतः बिना मोल के खरीदे हुए साम्यमात्र से ही यह निवृत्ति होती है। उत्कृष्ट और क्लिष्ट प्रयत्नसाध्य रागादि की उपासना करने से क्या लाम? क्योंकि बिना प्रयत्न से मिलने वाला यह मनोहर सुख तो साम्य ही देता है। तू इसी का बाश्रय ले । परोक्ष पदार्य को नहीं मानने वाला नास्तिक स्वर्ग और मोम को नहीं मानेगा; परन्तु यह स्वानुभवजन्य
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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