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________________ ४५८ योगशास्त्र : चतुर्थ प्रकाश अशीचभावना (७) आश्रवभावना (4) संवर भावना (8) निर्जराभावना (१०) धर्मस्वाख्यात-भावना (११) लोक-भावना और (१२) बोषिदुर्लभभावना। ये बारह भावनाएं है। इन १२ भावनाओं का स्वरूप क्रमशः बताया जायेगा। इनमे सर्वप्रथम अनित्य-भावना का स्वरूप कहते हैं यत्प्रातस्तन्न मध्याह्ने, यन्मध्याह्न न तनिशि । निरीक्ष्यते, मवेऽस्मिन् ही ! पदार्थानामनित्यता ॥५७॥ शरीरं देहिनां सर्व-पुरुषार्थ-निबन्धनम् । प्रचण्ड - पवनोद त - घनाघन - विनश्वरम् ॥५॥ कल्लोल-चपला लक्ष्मीः संगमाः स्वप्नसन्निभाः। वात्या-व्यतिकरोत्क्षिप्ततूल-तुल्यं च यौवनम् ॥५६।। अर्थ-प्रातःकाल जो दिखाई देता है, वह मध्याह्न में नहीं दिखाई देता और मध्याह्न में जो दृष्टिगोचर होता है; वह रात में नजर नहीं आता । इसलिए अफसोस है इस संसार में समस्त पदार्थ अनित्य हैं ॥५७॥ देहधारियों का यह शरीर समस्त पुरुषार्थों का आधार है। परन्तु वह भी प्रचण्डवायु से उड़ाये गये बादलों के समान रिनश्वर है ॥५८॥ लक्ष्मी समुद्र की तरंगों के समान चपल है ; प्रियजनों के संयोग स्वप्न के समान क्षणिक हैं और यौवन वात्याचक्र (मांधी) से उड़ाई गई आक को बई के समान अस्थिर है। व्याख्या-इसके सम्बन्ध में कुछ आन्तरश्लोक हैं । उनका भावार्थ प्रस्तुत करते है-अपने पर अथवा दूसरों पर सभी दिशाओं से आपत्तियां आया ही करती हैं। जीव यमराज के दांत रूपी यंत्र में पड़ा हा कष्ट से जी रहा है। चक्रवर्ती, इन्द्र आदि का शरीर वज के समान है। परन्तु उसके स त्यता लगी है तो फिर केले के गर्भ के समान निःसार शरीर वालों का क्या कहना? जो निःसार शरीर में रहना चाहता है; मानो वह जीर्ण सूखे पत्तों से बने हुए पुरुष के शरीर में रहना चाहता है। मृत्युरूपी व्याध के मुम्ब-कोटर में स्थित शरीरधारी को बचाने में कोई भी मन्त्र, तन्त्र या औषधि समर्थ नहीं हैं। आयुष्य की वृद्धि होने के साथ जीव को पहले वृद्धावस्था और बाद में यमराज अपना ग्रास बन जल्दी करता है । धिक्कार हो, जन्मधारी जीवों को ; जो यह भलीभांनि जानते हैं कि यह जीव यमराज के अधीन है, फिर वे बाहार का एक भी कोर कैसे ले सकते हैं ! फिर आयकर्म की तो बात ही क्या कहें ? जैसे पानी में बुलबुला पैदा हो कर तुरन्त ही नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार जीव का शरीर उत्पन्न कर क्षणभर में विनष्ट हो जाता है। धनवान हो या दरिद, राजा हो रंक, पंडित हो या मूर्ख सज्जन जन, यमराज सब को एक समान हरण करने वाला है। उसमें गुणों के प्रति उदारता नहीं है: दोषों के प्रति द्वेप नहीं है । जमे दावाग्नि सारे जंगल को जला कर भस्म कर देती है। वैसे ही यमराज सब प्राणियों को नष्ट कर देता है। कशास्त्र पर मोहित होने पर भी कोई ऐसी शका नहीं कर सकता कि किसी भी उपाय से यह काया निरापद रह सके । जो मेरुपर्वत को दण्ड और पृथ्वी को छत्ररूप बनाने में समर्थ है, वह भी अपने को या दूसरों को मृत्यु के मुख से बचाने में असमर्थ है। चींटी से ने कर देवेन्द्र तक कोई भी ममझदार मनुष्य कभी ऐसा नहीं कहेगा कि "मैं यमराज के शासन में काल को ठग लूंगा।" और हे वुद्धिशाली ! यौवन को भी अनित्य ही समझो ; क्योंकि बल और रूप का हरण करने वाला बुढापा उसे
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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