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________________ रागत षनिवारण एवं कर्मक्षय का उपाय-समत्व ४१५ अमानन जनन, सम्माणि मज्जताम् । जायते सहसा पुंसा, रागद्वेषमलक्षयः ॥५०॥ अर्थ-जैसे जल में स्नान करने से मैल दूर हो जाता है, उसी तरह अतीव आनन्दअनक सममावरूपी जल में स्नान करने वाले पुरुषों का भी रागढषरूपी मल सहसा दूर हो जाता है। ___ समत्व केवल एक रागढप को ही नहीं मिटाता ; अपितु समस्त कर्मों को भी क्षय करता है। उसे ही कहते हैं प्रणिहन्ति क्षणार्धन, साम्यमालम्ब्य कर्म तत् । यन्न हन्यानरस्तीव्रतपसा जन्मकोटिभिः॥५१॥ अर्थ करोड़ों जन्मों तक तीन तपस्या करके जिन ज्ञानावरणीय आदि कर्मों को मनुष्य नष्ट नहीं कर सकता ; उन्हीं कर्मों को समता का आश्रय ले कर मनुष्य आधे क्षण में नष्ट कर सकता है। साधक समभाव से अन्तर्मुहूर्त में किस तरह समस्त कर्मों को नष्ट कर देता है, इसे कहते हैं कर्मजीवंच संश्लिष्टं परिज्ञातात्मनिश्चयः । विभिन्नोकुरुते साधुः सामायिकशलाकया ॥५२॥ अर्थ-कर्म और जीव परस्पर संश्लिष्ट (जुड़े चिपके हुए) हैं। जिसे आत्मस्वरूप का निश्चित ज्ञान हो गया है, वह साधु समभाव सामायिकरूपी सलाई से इन्हें पृषक कर लेता है। व्याख्या- जीव और कर्म का संयोग हुमा है; ये दोनों अलग-अलग हैं; एक नहीं हैं; इस प्रकार जिसने आत्मनिश्चय से जाना है, वह मुनि सामायिकरूपी शलाका से जीव और कर्म को पृथक्पृथक् कर लेता है। जैसे श्लेषद्रव्य से आपस में चिपके हुए पात्रादि को सलाई मे अलग कर दिया जाता है, उसी तरह संयोग-सम्बन्ध से सम्बद्ध जीव और कर्म को भी सामायिक से पृथक् किया जा सकता है। इसी का नाम कर्मक्षय है; निर्वाणपद की प्राप्ति है। पुद्गलों का आत्यन्तिक-सर्वथा भय कदापि नहीं होता, क्योंकि द्रव्य नित्य है। आत्मा से कर्म-पुद्गलों के पृथक् हो जाने को ही कर्मक्षय कहते हैं । यहाँ शंका होती है कि 'साधु सामायिकरूपी सलाई से कर्मों को अलग कर देते हैं, यह कथन केवल वाणीविलास है।' इसका समाधान करते हैं कि आत्मज्ञान का अभ्यास करते-करते जब ज्ञानाबरणकर्म के क्षयोपशम से जो आत्मस्वरूप का निर्णय भलीभांति कर लेता है; अनुभव कर लेता है, वह बात्मा जीव और कर्म को सामायिक-शलाका से अलग कर सकता है। वह बार-बार स्वसंवेदन-आत्मानुभव से बात्मा का हढ़ निश्चय करता है कि बात्मस्वरूप को बावृत करने-कने वाले कर्म बात्मा से भिन्नस्वरूप वाले हैं।' वही साधक परमसामायिक के बल से जीव और कर्म को अलग-अलग करता है। आत्म-निश्चय के बल से साधक केवल कर्म को ही बलग करता है। इतना ही नहीं, किन्तु मात्मा को परमात्म-स्वरूप का वर्शन भी कराता है । इसे ही कहते हैं
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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