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________________ ४३० योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश विमान, बड़े-बड़े उद्यान, स्नान करने के लिए सुन्दर वापिकाए', विचित्र रत्न, आभूषण, वस्त्र, अंगसेविका देवांगनाएं', कल्पवृक्षों की पुष्पमाला पर मडराते हुए भौंरो की तरह करोड़ों देवता सेवा के लिए परस्पर प्रतिस्पर्धा करते हुए जय-जयकार के नारों से आकाश गुजा देते हैं। वहां मन में इच्छामात्र से समग्र विषय-सुख की प्राप्ति होती है। विविध प्रकार से सिद्धायतनों की यात्रा करने से अत्यन्त हर्ष होता है । इन सब अनन्य असाधारण सुखों का अनुभव पूर्वपुण्य-प्रकर्ष से होता है। वैमानिक देवलोक से आयु पूर्ण करके मनुष्यभव में वह विशिष्ट देश, जाति, ऐश्वर्य, रूप आदि प्राप्त करके औदारिक शरीर में जन्म लेता है और वहाँ शब्द-रूप-रस-गंध-स्पर्श-विषयक अनुपम भोगों का उपभोग करता है। इसी बीच देराग्य का निमित्त पा कर सांसारिकसख से उत्कृष्ट विरक्तिभाव प्राप्त करके वह सर्वविरति स्वीकार करता है, और उसी जन्म में क्षपकअंणि पर आरूढ़ हो कर क्रमशः केवलज्ञान समस्त कमों को निर्मूल कर शुद्धात्मा बन कर मुक्ति प्राप्त करता है। यदि उसी जन्म मे मुक्ति प्राप्त न कर सका तो वह जीव कितने भवों में मृत्ति प्राप्त करता है ? इसे कहते हैं - वह जीव आठ भवों के अंदर-अदर मुक्ति प्राप्त कर लेता है। पूर्वोक्त तीन प्रकाशों मे कहे हुए विषयों का उपसंहार करते हुए कहते हैं-- इति संक्षेपतः सम्यग् रत्नत्रयमुदीरितम् । सर्वोऽपि यदनासाद्य, नासादयति निर्वृतिम् ॥१५॥ अर्थ एवं व्याख्या- इस प्रकार तीन प्रकाशों द्वारा ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मक रत्नत्रयरूप योग का स्वरूप कहा है। वह किम प्रकार कहा है ? सम्यक यानी जिनागमों के साथ विरोध न पाए इस तरह संक्षेप में कहा है। छद्मम्थ के लिए विम्भार से कहना दु:शक्य है; इसीलिए संक्षेप में वर्णन किया गया है। रत्नत्रय के बिना अन्य किसी कारण गे निर्वाणप्राप्ति हो सकती है या नहीं? इस शका का समाधान करते हुए कहते हैं इन सभी (तीनो) में मे एक भी न्यून हो तो मुक्ति नहीं हो सकती। कहा है कि काकतालीय न्याय से भी त्रिरत्नप्राप्ति किये बिना कोई मुक्ति नही पा सकता। जो जीवादि तत्वों को नहीं जानता ; जीवादिपदार्थों पर श्रद्धा नहीं करता, नये कर्म बांधता है और पुराने कमों का धम-शुक्ल ध्यान के बल मे क्षय नहीं करता ; वह संसार के बन्धन से छूट कर मुक्ति नहीं पा सकता। इसीलिए सर्वोऽपि' कह कर यह पुष्टि कर दी है कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र की संयुक्त बाराधना से ही कोई व्यक्ति मुक्ति प्राप्त कर सकता है ; अन्यथा नही । इस प्रकार परमाहंत श्री कुमारपाल राजा को जिज्ञासा से आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरीश्वररचित अध्यात्मोपनिषद् नामक पट्टबद्ध अपरनाम योगशास्त्र का स्वोपज्ञविवरणसहित तृतीय प्रकाश सम्पूर्ण हुआ।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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