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________________ ॐ अहंते नमः ४ : चतुर्थ प्रकाश पहल के तीन प्रकाशों में धर्म और धर्मी के भेदनय की अपेक्षा से ज्ञानादि रत्नत्रय को आत्मा की मक्ति का कारणरूप निरूपण किया है। अब अभेदनय की अपेक्षा से आत्मा के साथ ज्ञानादि रत्नत्रय के एकत्वभाव का निरूपण करते हैं आत्मैव दर्शन-ज्ञान-चारित्राण्यथवा यतेः। यत् तदात्मक एवंष, शरीरमधितिष्ठति ॥१॥ अर्थ- अथवा यति-(साधु) का आत्मा ही दर्शन, ज्ञान ओर चारित्ररूप है ; क्योंकि वर्शनादिरत्नत्रयात्मक आत्मा शरीर में रहता है। व्याख्या-मूल श्लोक में 'अथवा' शब्द का प्रयोग अभेदनय को अपेक्षा से दूसरा विकल्प बताने के लिए किया है। आत्मा ही दर्शन-ज्ञान-चरित्र-स्वरूप है; दर्शनादि आत्मा से भिन्न नही है। यति (मुनि) का आत्मा के साथ सम्बन्ध जोड़ना, दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप आत्मा ही यति क शरीर में स्थित है। दर्शनादि आत्मा से अलग नहीं है, आत्मस्वरूप है। इसीसे वह (रत्नत्रय मुक्ति का कारणरूप बनता है। आत्मा से भिन्न हो, वह मुक्ति का कारण नही बन सकता । देवदत्त के ज्ञानादि से. यज्ञदत्त को मुक्ति नही मिल सकती। अभेद का समर्थन करते हैं आत्मानमात्मना वेत्ति, मोहत्यागाद् य आत्मनि । तदेव तस्य चारित्रं, तज्ज्ञानं तच्च दर्शनम् ॥२॥ अर्थ आत्मा को आत्मा स्वयं जानता है। ऐसा ज्ञान मूढ़-व्यक्ति को नहीं होता, अतः कहा है कि मोह का त्याग करने से आत्मा अपनी आत्मा के द्वारा अपनो आत्मा में जानता है, वही उसका चारित्र है, वही ज्ञान है और वही अवारूपी दर्शन है। अब आत्मज्ञान की स्तुति करते हैं - आत्माज्ञानभवं दुःखमात्मतानन हन्यते । तपसाऽप्यात्मविज्ञानहीनश्छेत्तुं न शक्यते ॥३॥ अर्थ--आत्मा को अज्ञान के कारण दुःख होता है, और वह दुःख आत्मज्ञान से ही नष्ट किया जाता है । जो आत्मज्ञान से रहित हैं, वे मनुष्य तपस्या आदि से भी दुःखका छेदन नहीं कर सकते।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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