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________________ श्रावकधर्म पालक गृहस्थ की भावी सद्गति ४२९ कर खड़े रहे, तब चरणों में मस्तक रख कर आनद ने त्रिकरणशुद्ध वन्दन किया। फिर आश्वस्त हो कर उनसे पूछा-'भगवन् ! गृहस्थ को अवधिज्ञान प्राप्त होता है या नहीं?' उसक उत्तर में गौतमस्वामी ने कहा-'हां, होता है।' तब आनद ने कहा भगवन् ! गुरुदेव की कृपा से मुझ गृहस्थ को अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है। पूर्व, दक्षिण और पश्चिम इन तीनों दिशाओं म सौ-सौ योजन तक, तथा समुद्रजल तक एवं उत्तरदिशा में हिमवान् पर्वत तक मुझं दीखता है। इसी तरह प्रभो ! ऊपर सौधर्म देवलोक सक और नीचे रत्नप्रभापृथ्वी के लोलुयच्चुय तक मुझे दिखाई देता है .' यह सुन कर गौतमस्वामी ने कहा-"आनंद ! गृहस्थ को अवधिज्ञान जरूर होता है, परन्तु इतने विषयों का ज्ञान नहीं होता । अतः इसका प्रायश्चित्त करो !" आनंद ने कहा --'भगवन् ! मुझं इतना अवधिज्ञान है अतः क्या विद्यमान पदार्थ को सत्य को कहने मे प्रायश्चित्त आता है ? यदि प्रायश्चित्त आता भी हो तो भगवन ! इस विषय में आपको लेना चाहिए।" गौतमस्वामी से जब आनद ने इम प्रकार कहा तो उन्हे भी कुछ-कुछ शका हुई। और वे सीधे श्रीवीरप्रभु के पास पहुंचे। उन्हें अ हार-पानी बताया और आनद के अवधिज्ञान के विषय में जो आशका थी, उसे निवेदन कर गौतमस्वामी ने प्रकट रूप में पूछा . "प्रभो ! इस विषय में आनंद प्रायश्चित्त का भागी है, या मै? आलोचना मुझे करनी चाहिए या आनन्द को?' प्रभु ने कहा"गौतम ! 'मिच्छामि दक्कर' तुम्हें देना चाहिए, और आनद से जा कर क्षमा मागनी चाहिरा" प्रभ की आज्ञा मान कर क्षमाभडार गौतमस्वामी ने मानदवावक से क्षमायाचना की। इस तरह आनंदश्रावक वीस वर्ष तक श्रावक-धर्म का पालन करके अनशनपूर्वक आयुष्य पूर्ण कर अरुणवर नामक विमान में देव हवा । वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर महाविदेह में जन्म ले कर परमपद मोक्ष प्राप्त करेगा । यह है आनन्द की सफल जीवन-यात्रा का वृत्तान्त । उपर्युक्त कथानुसार श्रावक की भावीगति का दो श्लोका द्वारा वर्णन करते है प्राप्तः सकल्पेष्विन्द्रत्वम् अन्यद् वा स्थानमुत्तमम् । मोदतेऽनुत्तरप्राज्य-पुण्य-सम्भारभाक् तत ॥१५३॥ च्युत्वोत्पद्य मनुष्येषु, भुक्त्वा भोगान् सुदुर्लभान् । विरक्तो, मुक्तिमाप्नोति, शुद्धात्माऽन्तर्भवाष्टकम् ॥ ५४॥ अर्थ- इस प्रकार शास्त्रानुसार श्रावकधर्मपालक गृहस्थ सौधर्म आदि देवलोक में इन्द्रपद या अन्य उत्तम स्थान प्राप्त कर लेता है। अपने उत्कृष्ट पुण्यपुज के कारण वह सुखी रहता है। वहाँ से च्यव कर वह मनुष्ययोनियों में उत्पन्न हो कर विविध दुर्लभ सखों का उपभोग करता है। फिर उनसे विरक्त हो कर कर्मक्षय करके शुद्धात्मा हो कर आठ भवों के अंदर-अंदर मुक्ति पा लेता है। व्याख्या--श्रावकधर्म का यथार्थरूप से पालन करने वाला गृहस्थ सौधर्म आदि देवनिकाय में उत्पन्न होता है । सम्यग्दृष्टि अन्य तीन देवलनिकायों में उत्पन्न नहीं होता । और देवलोक में भी वह इन्द्रपद, सामानिक, त्रायस्त्रिंश पारिषद्य और लोकपाल आदि का स्थान प्राप्त करता है । 'उत्तम' कहने का मतलब यह है कि दास, किल्विषिक या अन्य हीन जानि का देव वह नहीं होता। जहां उत्पन्न होता है, वहाँ सर्वोत्कृष्ट और महापुण्य का उपभोग करता हुआ आनन्द में रहता है। उत्तम रत्नों से बना हुआ
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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