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________________ ४१२ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश . ; , स्वीकार कर ली. तदनन्तर तीसरे प्रहर तक के अवढ्ढ पञ्चवखाण करने के लिए कहा उसे भी पूर्ण कर लिया। तब फिर मैने कहा अब तो थोड़ी देर बाद ही प्रतिक्रमण का समय हो जायगा फिर रात हो जायेगी । उसे सो कर सुखपूर्वक काटी जा सकेगी। इसलिए अब उपवास का पच्चक्खाण ले लो।" मेरे आग्रह से उसने उपवास का पञ्चकखाण अंगीकार कर लिया किन्तु रात को क्षुधा से अत्यंत पीड़ित हो गये, पेट में असा दर्द उठा और उसी में देव, गुरु देव व नमस्कारमन्त्र का स्मरण करते हुए उनका देहान्त हो गया। मर करके वे देवलोक में पहुंचे। लेकिन ऐसा करने में मुझे ऋषिहत्या का पाप लगा है। अतः मैंने खिन्न हो कर श्रमण संघ से इसका प्रायश्चित्त मांगा। इस पर संघ ने कहा- तुमने तो शुद्धभाव से नप करवाया था तुम्हारी भावना उनको मारने की कतई नही थी इसलिए तुम्हें । इसका कोई प्रायश्चित नहीं आता।" तब मैंने कहा--' इस बात को वर्तमान तीर्थंकर भगवान साक्षात् कहें तो मेरे मन का समाधान हो सकता है तभी मुझे शान्ति मिल सकती है अन्यथा मेरे दिल से यह शल्य नहीं जायेगा । इस पर समग्र संघ ने कायोत्सगं किया, जिसके प्रभाव से शासनदेवी उपस्थित हुई और कहने लगी- ' बताइये, मैं आपका कौन-सा कार्य करू ? संघ ने कहा- "इन साध्वीजी वो वर्तमान तीर्थकर सीमंधर-स्वामीजी के पास ले जाओ ।' देवी ने कहा- 'इनकी निर्विघ्नगति के लिये आप सब काउस्नग्ग में ही रहना। संघ ने भी वैसे ही किया तब देखते ही देखने देवी ने मुझ श्री सीमंधर- स्वामी के पास पहुंचाया । वहाँ मैंने प्रभु को वदना की। भगवान् ने मेरे आने का प्रयोजन जान कर कहा--- "भरतक्षेत्र से आई हुई साध्वी निर्दोष है ।" तत्पश्चात मेरे पर कृपा करके उन्होने मुझे आश्वस्त करने के लिए दो चूलिकाएं रच कर दीं। देवी के साथ वापस मैं यहां अपने स्थान पर लौटी। वहाँ से निःशक हो कर मैंने वे दोनों चूलिकाएं श्री संघ को अर्पण की ।" इस प्रकार कह कर मुनि स्थूलभद्र से अज्ञा ले कर वे सब अपने उपाश्रय में आ गई । ; । 1 -- - साध्वियों के जाने के बाद स्थूलभद्रमुनि जब वाचना लेन के लिये आचार्यश्री के पास आये तो उन्होंने वाचना देने से इन्कार करते हुए कहा- "मुनि ! तुम वाचना के अयोग्य हो ।" स्थूलभद्र स्मरण करने लगे कि दीक्षा से ले कर आज तक में मैंने कौन-सा अपराध किया है। बहुत विचार करने पर भी जब उन्हें अपनी एक भी भूल याद नहीं आई ; तब उन्होंने आचार्यश्री से कहा - "गुरुदेव ! मेरा ऐसा कौन-सा अपराध है. जिससे आपने मुझे वाचना देने से इन्कार कर दिया ? मुझे तो अपराध याद नहीं आता ।" अतः गुरु ने कहा -- शान्तम् ! पापम् !! गजब की बात है ! अपराध करके भी तुम्हे वह याद नहीं आता ?' यह कहते ही स्थूलभद्रमुनि को अपनी भूल का ख्याल आया। उसी समय वे गुरुजी के चरणों में पड़ कर माफी मांगने लगे और बोले 'गुरुदेव ! भविष्य में ऐसी गलती कदापि नहीं करूंगा । इस बार तो मुझे माफ कर दीजिए।' 'भविष्य म तुम ऐसी गलती नहीं करोगे, परन्तु अभी तो तुमने अपराध किया है। इसलिए अब तुमको वाचना नहीं दी जानी चाहिए।' आचार्य भद्रबाहु ने कहा। उसके बाद मुनिस्थूलभद्र के कहने से सकल संघ ने मिल कर गुरुमहाराज से प्रार्थना की। महाकोप होने पर भी उस पर प्रसन्न होने में महापुरुष ही समर्थ होते हैं। आचार्यश्री ने संघ से कहा इस समय इसने ऐसा किया है, तो इसके बाद मन्दसत्व आत्माएँ भी इसी प्रकार इसका उपयोग करेंगी। इसलिए बाकी के पूर्व मेरे पास ही रहने दो, हम भूल का दण्ड उसे ही मिले और दूसरे को पूर्व पढ़ाने वाले को भी मिलना चाहिए।" बाद में संघ के अतिआग्रह पर उन्हें ज्ञान से उपयोग लगा कर देखा तो मालूम हुआ कि शेष पूर्व मेरे से तो विच्छिन्न नहीं होने वाले है परन्तु भविष्य में अन्य महामुनि से विच्छेद होने की संभावना है; अब बाकी के पूर्व तुम्हें किसी दूसरे को नहीं पढ़ाने हैं।" इस प्रकार शर्त तय होने के बाद भद्रवाटुस्वामी ने स्थूलभद्र
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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