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________________ आचार्य भद्रबाहुस्वामी से स्थूलभद्रमुनि द्वारा बारहवें अंग का अध्ययन कहना- 'जो आचार्य श्रीसध की आज्ञा न माने, उसे क्या दंड दिया जाना चाहिए ?' जब वे यह कहें कि 'उसे संघ से बहिष्कृत कर देना चाहिए।' तब तुम दोनों एक साथ उच्चस्वर से आचार्यश्री से कहना'तो भगवन् ! आप भी उस दण्ड के भागी हैं !' दोनों मुनि वहां पहुंचे और उन्होंने आचार्यश्री को उमी तरह कहा । अतः आचार्य भद्रबाह ने कहा-"श्रीसंघ भगवान् मेरे प्रति ऐसा न करे। परन्तु मुझ पर कृपा करके बुद्धिमान शिष्यों को यहां भेजे। मैं यहाँ रहते हुए ही उन्हें प्रतिदिन सात वाचना दूंगा। पहली वाचना भिक्षाचर्या करके लोटते ही दूंगा; दूसरी स्वाध्यायकाल में, तीसरी बहिर्भूमि से वापिस आने पर और चौथी विकाल के समय तथा शेष तीन वाचनाएं आवश्यक समय पर दूंगा। इस तरह प्रतिदिन सात वाचना दूंगा ; जिसमे संघ का कार्य भी बदस्तूर हो जायगा और मेरी साधना भी निविघ्न सिद्ध हो जायगी।" यह सुन कर वे दोनों मुनि वापिस पाटलीपुत्र लौटे और श्रीभद्रबाहु ने जैसा कहा था, वह उन्होंने श्रीसंघ के सामने प्रस्तुत कर दिया। इससे श्रीसंघ प्रसन्न हो कर अपने को भाग्यशाली मानने लगा। श्रीसंघ ने इस पर विचार करके स्थूलभद्र आदि पांच-सी मुनियों को वहां भेजा। भद्रबाहस्वामी पांचसी मुनियों को प्रतिदिन सात वाचना देने लगे। परन्तु अत्यधिक वाचना होने के कारण उद्विग्न हो कर अन्य सभी मुनिवर तो अपने-अपने स्थान पर लोट गए। केवल एक स्थूलभद्रमुनि ही वहाँ रहे। एक दिन आचार्यश्री भद्रबाहु-स्वामी ने स्थूलभद्रमुनि से पूछा-- "मुने ! तुम्हें सतत वाचना से उद्वेग तो नहीं होता ?" तब स्थूलभद्र ने कहा-"भगवन् ! मुझे उद्वेग तो नहीं होता; परन्तु वाचना बहुत ही अल्प मिलती है। आचार्यश्री ने कहा- "अब मेरी ध्यान-साधना लगभग पूर्ण होने वाली है। उसके पूर्ण होते ही मैं तुम्हें यथेच्छ वाचना दे सकूगा।" ध्यान-साधना पूर्ण होने के बाद आचार्यश्री ने स्थूलभद्र को उनकी इच्छानुमार वाचना देनी शुरू की । लगभग दस पूर्व में दो वस्तु कम तक का अध्ययन हुवा था कि उसके बाद श्रीभद्रबाहु-स्वामी बिहार करके क्रमशः पाटलीपुत्र पधारे और नगर के बाहर उद्यान में ठहरे । उस समय ग्रामानुग्राम बिहार करती हुई स्थूलभद्र की सात बहनें (साध्वियाँ) भी उसी नगर में पधारी हुई थीं। उन्होंने आचार्यश्री का पदार्पण सुना तो वन्दन के लिए वहाँ आई। गुरुमहाराज को वन्दन करके उन्होंने पूछा –'भगवन् ! स्थूलभद्रमुनि कहाँ है ?' आचार्यश्री ने कहा- "इसी मकान की ऊपरी मंजिल पर वे हैं ।" बहनें भाई (साधु) को वन्दनार्थ ऊपर की मंजिल पर जाने लगी, उस समय बहनों को आते देख कर कुछ कौतुक (चमत्कार) बताने के लिहाज से स्थूलभद्रमुनि ने सिंह का रूप बना लिया। भाई के बदले मिह का रूप देख कर सभी साध्वियां एकदम घबरा कर उल्टे पैरों लौट आई और गुरुमहाराज से निवेदन किया 'गुरुदेव ! मालूम होता है, बड़े भाई को सिंह खा गया ; क्योंकि वहां तो केवल एक सिह बैठा है ।" आचार्यश्रीजी ने अपने ज्ञान में देखा और जान कर आजा दी--"वहीं जाओ और बड़े भाई को वन्दन करो। वह वहीं पर है, वह सिंह नहीं है। अतः साध्वियां वापिस गई, तब वे अपने असली रूप में थे। साध्वियों ने स्थूलभद्रमुनि को वन्दन किया और अपनी आपबीती सुनाई'मुनिवयं ! जब श्रीयक ने विरक्त हो कर दीक्षा ली तो हमने भी दीक्षा ले ली। परन्तु उसे प्रतिदिन इतनी अधिक भूख लगती थी कि वह एक दिन भी एक एकासन करने में समर्थ नहीं था । पर्युषण में संवत्सरी महापर्व आया तो मैंने बड़ी बहन के नाते श्रीयक मुनि से कहा-"भाई ! आज तो महापर्व का दिन है। अतः नौकारसी के स्थान पर पोरसी का पच्चक्वाण कर लो।" मेरे कहने से उन्होंने वही पच्चक्खाण किया। पच्चक्खाण पूर्ण होने पर मैंने कहा-'भाई ! थोड़ी देर और रुक जाओ । और चंत्यपरिपाटी की धर्मयात्रा करते हुए भगवदर्शन करोगे, इतने में पुरिमड्ढ पच्चक्खाण आ जायेगा। यह बात भी उन्होंने
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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