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________________ ४१० योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश नेवले का आवागमन होता हो, वहां दूष दूषित होने से बच नहीं सकता; वैसे ही स्त्री के निवास वाले स्थान में पुरुष का दूषित होने से बचना दुष्कर है । स्थूलभद्रमुनि के शिवाय अनेक योगी दूषित हुए हैं। स्त्री के पास एकान्त में सिर्फ एक दिन भी अविचलित रहने में कौन समर्थ है ? जबकि स्थूलभद्रमुनि चार महीनों तक अखण्डब्रह्मचर्यव्रती रहे । यद्यपि उनका आहार षट्रसों से युक्त स्वादिष्ट था; उनका निवास चित्रशाला में था; स्त्री भी उनके पास थी और एकान्त स्थान भी था । फिर भी स्थूलभद्र मुनि चलायमान नहीं हुए । जहाँ अग्नि के समान स्त्री के पास रहने से धातु के समान कठोरहृदय पुरुष भी पिघल जाते हैं; वहाँ हम उस महामुनि स्थूलभद्र को वज्रमय ही देखते हैं । दुष्करानिदुष्कर कार्य करने वाले महासत्त्र श्रीलभद्रमुनि का वर्णन करने के बाद अब दूसरे का वर्णन करने को मुंह नहीं खुलता। उस पर ताला ही लगाना जरूरी है । यह सुनते ही रथकार ने कोशा से पूछा - "तुम जिसका इतना बखान कर रही हो ; वह महासत्वशिरोमणि स्थूलभद्र कोन है ? तब उसने कहा - " जिसका चरित्र-चित्रण मैंने तुम्हारे सामने किया है ; वह नंदराजा के मन्त्री स्व-शकटाल का पुत्र स्थूलभद्र है ।' यह सुन कर आश्चयं मुद्रा से रथी हाथ जोड़ कर कहने लगा- 'तो समझ लो ! आज से मैं भी उन स्थूलभद्र महामुनि का एक सेवक हूं ।' रथकार को संसारविरक्त देख कर कोशा ने उसे धर्म का ज्ञान दे कर उसकी बची-खुची मोहनिद्रा भी नष्ट कर दी । अब वह प्रतिबोधित हो चुका था । अतः कोशा ने उपयुक्त अवसर जान कर उसे अपना अभिग्रह (संकल्प-नियम) बताया। जिसे सुन कर विस्मय से विस्फारित नेत्रों से रथी ने कहा 'भद्र' ! स्थूलभद्रमुनि के गुण-कीर्तन करते हुए तुमने मुझे प्रतिबोधित किया है । अत: आज से मैं तुम्हारे बताये हुए मार्ग पर ही चलूंगा। तुम अपने स्वीकृत अभिग्रह पर सुखपूर्वक बेखटके दृढ़तापूर्वक चलो । लो मैं जाता हूं ; तुम्हारा कल्याण हो ।" यों कह कर रथकार सीधा स्थूलभद्रमुनि के चरणों में पहुंचा और उनसे उसने मुनिदीक्षा अंगीकार कर ली । मुनिवरेण्य स्थूलभद्र भी कठोर व्रतों की आराधना करते हुए कालयापन कर रहे थे । अकस्मात् लगातार बारह वर्ष का भीषण दुष्काल पड़ा। उस समय सारा साधु-संघ समुद्रतट पर चला गया । वहाँ पर भी कालरात्रि के समान भयंकर दुष्काल की छाया पड़ी हुई थी । साधुओं को भी आहारपानी सुलभ नहीं था । इस कारण शास्त्र स्वाध्याय न होने से श्रुतज्ञान की आवृत्ति न होने के कारण जो कुछ शास्त्र (श्रुत) कण्ठस्थ था, वह भी विस्मृत होने लगा ।" अभ्यास और आवृत्ति के बिना बड़े-बड़े बुद्धिमानों का पढ़ा हुआ कण्ठस्थ श्रुतज्ञान भी नष्ट हो जाता है । अत: अब शेष श्रुतज्ञान को नष्ट होने से बचाने के लिए श्रीसंघ ने उस समय पाटलीपुत्र में श्रमणसंघ को एकत्रित किया और जिन-जिन को जितने - जितने अंग, अध्ययन, उद्देश्य आदि कण्ठस्थ याद थे, उन सबको सुन कर एवं अवधारण कर श्रीसंघ ने ग्यारह ही अगों को लिपिबद्ध मगृहीत किया । बारहवें अंग दृष्टिवाद का कोई अतापता नहीं मिल रहा था, विचार करते-करते मंघ को याद आया कि श्रीभद्रबाहु स्वामी दृष्टिवाद के ज्ञाता हैं । उनसे इसे उपलब्ध किया जाय । अतः उन्हें बुलाने के लिए संघ ने दो साधुओं को भेजा । वे दोनों मुनि भद्रबाहु की सेवा में पहुंचे । वंदन करके करबद्ध हो कर उन्हें निवेदन किया- भगवन् ! श्रीसंघ ने आपको पाटलीपुत्र पधारने के लिए आमंत्रित किया है।' इस पर उन्होंने कहा- मैंने महाप्राण ध्यान प्रारम्भ किया है, अतः मेरा वहाँ आना नहीं हो सकता ।' यह निराशाजनक उत्तर ले कर दोनों मुनि श्रमण संघ के पास लौट आये और भद्रबाहुस्वामी ने जो कहा था, उसे कह सुनाया। श्री ( श्रमण ) संघ ने इस पर ध हो कर अन्य दो मुनियों को उन्हें बुला लाने की आज्ञा दी कि 'तुम आचार्यश्री के पास जा कर
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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