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________________ कोशा द्वारा सिंहगुफावासी मुनि एवं रथकार को प्रतिबोध ४०६ ने मुनि के देखते ही देखते तत्काल निःशंक हो कर उसे गन्दी नाली में फेंक दिया। मुनि ने कहा - "भद्रे ! इतने महामूल्यवान् और अतिपरिश्रम से प्राप्त रत्नकम्बल को तुमने गन्दे नाले में फेंक दिया ? शंखग्रीवे ! तुमने उसे फेंकते समय जग भी विचार नहीं किया ? इस पर कोशा ने तपाक में कहा - "विचारमूढ़ मुने ! तुम इस रत्नकम्वल की चिन्ता कर रहे हो, लेकिन स्वयं चारित्ररत्नमय मुनिजीवन को वासनारूपी नरक के गंदे गड्ढे में फेंक रहे हो; उसकी भी कोई चिन्ता है तुम्हें ? यह सुनते ही मुनि एकदम चौंक उठे । कोशा की इस प्रबल फटकार से वे सहसा वैराग्य की ओर मुड़े अपने को संभालते हुए उन्होंने वेश्या से कहा 'बहन ! वास्तव में तुमने मुझे आज सोने से जगाया है। सुन्दर प्रतिबोध दिया है और संसार समुद्र से गिरते हुए मुझे बचाया है। वास्तव में तुमने महान् कार्य किया है। अब मैं स्वस्थ हूं और संयमी जीवन में लगे हुए अतिचारों (पापों दोपों) के उन्मूलन के लिए गुरुमहाराज के चरणों में जा रहा हूं । भाग्यशालिनी ! तुम्हें घर्मलाभ हो ।' कोशा ने भी मुनि से कहा आपके निमित्त से मैं भी अपराधिनी बनी, उसके लिए 'मिच्छामि दुक्कडं' देती हूँ । ब्रह्मचर्यव्रत में तन्मय होते हुए भी आपको मैंने विचलित करने का प्रयत्न किया और नेपाल जाने का कष्ट दिया । तथा आपको प्रतिबोध देने के लिए मैंने आपकी इस प्रकार आशातना की ; उसके लिए मैं आपसे क्षमा चाहती हूं ; क्षमा करे ! मैं चाहती हूं कि अब आप शीघ्र ही गुरुजी की सेवा में पहुँच जांय ।' मुनि भी गुरु के पास पहुंचे और उनके सामने आत्मनिवेदनपूर्वक आलोचना करके प्रायश्चित्त के रूप मे घोर तपश्चरण करने लगे । 1 ढेर एक दिन खुश हो कर नन्दराजा ने एक रथकार को कोशा वेश्या के यहाँ भेजा । परन्तु वेश्या राजा के अधीन होने से अनुरागरहित हो कर उसके साथ सहवास करती थी रथकार के समक्ष बह सदा यही कहा करती थी कि 'स्थूलभद्र से बढ़कर कोई महापुरुष नहीं है।' रथकार ने मन में सोचा - ' इसे ऐसा कोई चमत्कार बताऊं, जिससे यह मेरे प्रति अनुराग करने लगे ।' ऐसा सोचकर एक दिन वह गृहोद्यान में जा कर एक पलंग पर बैठ गया और कोशा के मनोरंजन के लिए अपना विज्ञानचातुर्य बतलाया कि आमों के एक गुच्छे को निशाना ताक कर एक वाण से बींध दिया। फिर उस बाण को दूसरे बाण से, दूसरे को तीसरे से इस तरह बाणों की कतार अपने हाथ तक लगा दी । बाद में आम के गुच्छों की डाली को अस्त्राकार बाण से काट डाली । और तो और एक-एक बाण मानो अपने हाथ सं पास हो, इस तरह खींच कर आमों का गुच्छा वहीं बैठे-बैठे ही कोशा वेश्या को समर्पित कर दिया । यह देख कर वेश्या ने कहा 'अब मेरी भी नृत्य कला देखिये ।' यह कह कर उसने सरसों का एक लगवाया । उस पर बीच में एक सुई खड़ी कर दी। फिर सारे ढेर को फूल की पंखुडियों से ढक दिया । तत्पश्चात् उसने उस सुई पर इस ढंग से नृत्य किया कि न तो सुई से उसे जरा भी चांट लगी, और न उससे एक भी पंखुड़ी आगे-पीछे हुई। यह देख कर रथकार ने खुश हो कर कोशा से कहा - 'तुम्हारे दुष्कर कार्य को देख कर मैं बहुत प्रसन्न हूं । अतः मेरे पास जो भी वस्तु है, उसे मांगो, मैं तुम्हें अवश्य दूंगा ।" इस पर वेश्या ने कहा- "मैंने ऐसा कोई दुष्कर कार्य नहीं किया; जिससे आप इतने प्रभावित हुए है ; बल्कि अभ्यास करने वाला इससे भी अधिक दुष्कर कार्य कर सकता है । यह आम का गुच्छा बघ डालना या सुई पर नृत्य करना, दुष्कर नहीं है, क्योंकि अभ्यास के बल पर यह कार्य सिद्ध हो सकता है । परन्तु बिना ही अभ्यास के स्थूलभद्र ने जो कार्य किया है; वह तो सचमुच ही अतिदुष्कर है । जिसने मेरे साथ लगातार बारह वर्ष तक रह कर नित्य-नये विषयसुखों का उपभोग किया; उसी चित्रशाला में चार मास रह कर स्थूलभद्र ब्रह्मचर्य आदि व्रतों में अखण्डित और अडोल रहे । जहाँ ५२ --
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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