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________________ ४०८ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश से इसने यह अभिग्रह अंगीकार किया है। अत: उसे कहा-'वत्म ! यह अभिग्रह दुष्करातिदुष्कर है। तुम इमके पालन में समर्थ नहीं हो। इसलिए ऐसा अभिग्रह मत करो। उसमें पूर्णतया उत्तीर्ण होने में तो मेरुसमान स्थिर स्थूलभद्र ही समर्थ हैं।' इस पर उस मुनि ने प्रतिवाद करते हुए गुरु से कहा-'मेरे लिये तो यह कुछ भी दुष्कर नही हैं, तो फिर दुष्कर-दुष्कर की बात ही कहाँ रही ? अत: मैं इस अभिग्रह में अवश्य ही सफल बनूंगा : गुरु ने कहा 'इस अभिग्रह से तुम भविष्य के लिए भी भ्रष्ट और पूर्वकृत तप-संयम से भी नष्ट हो जाओगे ; क्योंकि बलबूते से अधिक बोझ उठाने से अंगोपांगों का नाश होता है।" किन्तु अपने आपको पराक्रमी समझने वाले उस मुनि ने गुरु-वचन को ठुकरा कर कामदेव के निवासगृह के समान कोशागणिका के भवन की ओर प्रस्थान किया। दूर से आते मुनि को देख कर कोशा ने विचार किया कि मालूम होता है कि यह मुनि स्थूलभद्रमुनि के प्रति ईर्ष्या के कारण ही मेरे यहां आ रहा है . फिर भी मुझे श्राविका होने के नाते इसे पतित होने से वचना चाहिए। यों सोच कर वेश्या ने खड़े हो कर मुनि को वन्दन किया। मुनि ने सती कोशा से उसकी चित्रशाला चार माह रहने के लिए मांगी। कोशा ने सहर्ष चित्रशाला खोल दी और उसमें ठहरने की अनुमति दे दी। मुनि ने उसमें प्रवेश किया और रहने लगा। षट्रमयुक्त भोजन के बाद मध्याह्न में मुनि की परीक्षा के लिए रूप-लावण्य-मंडार कोशा उनके पास आई। कोशा की कमल-सी आँखे देखते ही मुनि एकदम विकारयुक्त हो गये । जिस प्रकार की रूपवती स्त्री थी, उसी प्रकार का स्वादिष्ट विविधरसयुक्त भाजन मिल जाय तो विकार पैदा होने में क्या कमी रह सकती है ? कामज्वर से पीड़ित मुनि ने कोशा से महवास की प्रार्थना की। उसके उत्तर में कोशा ने कहा-'भगवन् ! हम ठहरी वेश्या ! हम तो धन देने से ही वण में हो सकती हैं !'' मुनि ने कहा-"मृगलोचने ! तुम मुझ पर प्रसन्न हो; मगर बालू में से तेल प्राप्त हो तो हमारे पास से धन प्राप्त हो सकता है । यह तो असंभव है, प्रिये !' कोशा ने प्रतिबोध देने के लिहाज से मुनि से कहा --'असंभव क्यों है ?' नेपालदेश के राजा से कोई पहली बार ही मिले. जिसे उसने पहले कभी देखा न हो, तो उस साधु को वह रत्नकम्बल मेंट देता है। अत: आप वहां जा कर रस्नकम्बल ले आइये ।" कोशा ने तो मुनि को विरक्ति हो जाने की दृष्टि से कहा था, लेकिन उस बात को वह मुनि बिलकुल मच्ची मान बैठा और अपनी साघुमर्यादा को ठुकरा कर बनेक विघ्न वाला वर्षाकाल होने पर भी बालक की तरह अपने व्रतों को पापपंक से लिप्त मिट्टी में मिलाते हुए वह चौमासे में ही वहाँ मे चल पड़ा। नेपाल पहुंच कर राजा से रत्नकम्बल ले कर मुनि वापिस आ रहा था कि गस्ते मे एक चोरपल्ली दिखाई दी; जहाँ बहुत से चोर रहते थे। उन्होंने एक तोता पाल रखा था। उसने मुनि को देख कर कहा- 'लाख मूल्य वाला आ रहा है। यह सुन कर पेड़ पर बैठे चोरों के राजा ने दूसरे चोर से पूछा-- यह कौन आ रहा है ?' उसने कहा - 'कोई भिक्षु बा रहा है और उसके पास कुछ दिखता तो है नहीं।' साधु जब पास में पाया, तब चोरों ने पकड़ कर उसकी अच्छी तरह तलाशी ली। मगर उसके पास कुछ भी न मिला। अतः चोरों ने उसे निद्रव्य बान कर छोड़ दिया। किन्तु उसके जाने के बाद फिर तोता बोला- यह लाख मूल्य वाला जा रहा है।' बतः पोर-सेनापति ने उसे फिर पूछा --'भिक्षो ! सच सच बता दे ! तेरे पास क्या है? तब मुनि ने उससे कहा-मैं तुमसे क्या छिपाऊँ, वेश्या को देने के लिए नेपाल-नरेश से मैंने रत्नकम्बल प्राप्त किया था। उसे मैंने बांस की नली में छिपा रखा है। कहो तो दे दूं।" चोरों ने मुनि को मिक्ष समझ कर छोड़ दिया । मुनि वहां से सीधे कोशावेश्या के यहां पहुंचा और उसे बह रत्नकम्बल भेंट कर दिया। कोशा
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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