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________________ मायंबिल और अन्मत्त (उपवास) पच्चक्खाण के पाठ और विवेचन ३९५ 'माविलं पच्चलाइ, अन्नत्यनामोने, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, गिहत्यसंसठ्ठणं, उक्तित विवेगेणं, पारिठ्ठावणियागारे, महत्तरागारेणं, सब्यसमाहिबत्ति मागारेणंबोसिरह ।' आयम्बिल जैनधर्म का परिभाषिक शब्द है। शब्दशः इसका अर्थ होता है-आयं यानी मायाम = ओसामण (मांड) और अम्ल=चौथा खट्टा पानी या खटाई ; उपलक्षण से तमाम विगई, मिर्च-मसाले आदि स्वादवढंक या स्निग्ध वस्तुओं के असेवन का ग्रहण कर लेना चाहिए। जिसमें प्रायः नीरस (स्वादरहित), रूखी-सूखी खाद्यवस्तुओं-चावल, गेहूं, चने, उड़द आदि का भोजन (एक बार) करके निर्वाह किया जाय, उसे जैनशासन में आयंबिल या आचाम्ल तप कहते हैं। तात्पर्य यह है कि आयंबिल-पच्चक्खाण में स्वाद जीतने के लिए पौष्टिक, सरस, स्वादिष्ट, चटपटी गरिष्ठ आदि वस्तुओं से रहित रूखा-सूखा, नीरस भोजन करना होता है। इसमें प्रथम दो आगारों और अन्तिम तीन आगारों की व्याख्या पहले की जा चुकी है। बीच के तीन आगारों की व्याख्या इस प्रकार है'लेवालेवेणं' =लेप और बलेप से। अर्थात् आयंबिल करने वाले के लिए अकल्पनीय (असेवनीय) घी, तेल, गुड़ (मीठा), दूध, दही, मिर्च-मसाले, हरे साग, सूखे मेवे, पके फल आदि वस्तुओं का लेप आयंबिल के योग्य रूखे-सूखे भोजन या बर्तन के साथ पहले से लगा हो तो उसका आगार है ; अथवा भोजन व बर्तन के लेप तो न लगा हो, लेकिन तेल आदि अकल्पनीय वस्तुओं से लिप्त हाथ या कपड़े से साफ किये हुए या पोंछे हुए बर्तन में भोजन किया गया हो, तो उस अलेप का आगार है। मतलब यह कि लेप और अलेप के आगार के कारण पच्चक्खाण भंग नहीं होता। तथा 'गिहत्यसंसलैंग' = अर्थात् आहार देने वाला गृहस्थ जिस चमचे या कुड़छी आदि से साधु के पात्र में भोजन देता है, उसके साथ प्रत्याख्यान में अकल्पय कोई विगई. या मिर्च-मसाले आदि वस्तु लगी हो अथवा आयंबिल करते समय कडकी आदि में लगी उस अकल्प्य वस्तु का अंशमात्र मिला हो, आयम्बिलयोग्य आहार में उस वस्तु का स्वाद भी स्पष्ट रूप से मालूम होता हो, फिर भी ऐसी लेपायमान वस्तु के खाने पर इस आगार के कारण आयंबिल पच्चक्खाण का भंग नहीं होता। तथा 'उक्वित्तविवेगे' अर्थात् आयंबिल में खाने योग्य रूखी रोटी, चने, चावल आदि वस्तु पर आयंबिल में नहीं खाने योग्य सूखी विगई (गुड़, मिठाई आदि) रखी हो, उसे अच्छी तरह उठा लेने के बाद भी उसका अंश अथवा लेप रोटी चावल आदि पर लगा हो तो आयंबिल में खाने से इस आगार के कारण पच्चक्खाण भंग नहीं होता है । अर्थात् आयंबिल में कल्प्य (खाने योग्य वस्त) में अकल्प्य वस्तु का स्पर्श हो गया हो तो आयम्बिल भंग नहीं होता। परन्तु हलवा, साग आदि वस्तु को पूर्णरूप से उठा नहीं सकते ; अतः वह (विगई मादि) कल्प्य खाद्य के रूप लगी रह जाती है। इससे रूखी रोटी चावल आदि खाने पर प्रतभंग होता है। इस तरह इन आगारों (छ्टों) के अतिरिक्त मायंबिल में नहीं खा सकने योग्य अन्य चारों आहारों का त्याग करता हूं। शेष पदों का अर्थ पहले मा चुका है। अब उपवास के पच्चक्खान का वर्णन करते हैं। इसके पांच आगार हैं। यहाँ प्रथम उपवासपच्चक्खाण का सूत्र पाठ कहते हैं ___ "उग्गए सूरे अन्मत्तढं पन्चक्लाइ पग्विहंपि, तिविहंपि वा माहारं असर्ग, पाणं, साइम, साइमं अण्णत्यणामोगेणं सहसागारेगं परिछावणिमागारेग, सम्बसमाहिवत्तिागारणं बोसिरह।" उग्गए सूरे अर्थात् सूर्योदय से ले कर । इसका यह अर्थ हुआ कि भोजन करने के बाद शेष दिन के समय में उपवास नहीं हो सकता है। तथा 'अन्भत्तट्ठ=अर्थात् जिस प्रत्याख्यान में भोजन करने का प्रयोजन नहीं हो, उसे अभक्तार्थ (उपवास) कहते हैं । इसके आगार पूर्ववत् हैं। इसमें 'पारिदहा
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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