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________________ ३६६ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश पणियागार' विशेषरूप में है। यदि तिविहार उपवास किया हो तो उसे पानी पीने की छूट होने से बढ़ा हुआ आहार गुरु की आज्ञा से खा कर पानी पी सकता है, परन्तु जिसने चउविहार उपवास किया हो, वह तो आहार-पानी दोनों बढ़ गये हों, तभी खा सकता है पानी न बढ़ा हो तो अकेला आहार नहीं खा सकता।' 'बोसिरई'=उपयुक्त बागारों के अतिरिक्त अशनादि चारों या तीनों अशनादि आहार का त्याग करता है। ___ अब पानी-सम्बन्धी पच्चक्खान कहते हैं, उसमें पोरसी, पुरिमड्ढ, एकासना, एकलठाणा, मायंबिल तथा उपवास के पच्चक्खान में उत्सर्गमार्ग में चौविहार पच्चक्खान करना युक्त है, फिर भी तिविहार पच्चक्खान किया जाय और पानी की छूट रखी जाय, तो उसके लिए छह आगार बताए हैं। वे इस प्रकार हैं "पाणस्स लेवाण वा, अलेवाडेग वा अच्छेण वा बहुलेण वा ससिस्थेणं वा असित्षेण या बोसिरह।" पोरसी आदि के आगारों में 'अण्णत्पणामोगे' आगार के साथ इसे जोड़ना और जो तृतीया विभक्ति है उसे पंचमी के अर्थ में समझना। तथा 'लेवाडेण वा'=मोसामण अथवा खजूर, इमली आदि के पानी से या जिस वर्तन आदि में उसके लेपसहित पानी हो, उसके सिवाय त्रिविध आहार का में त्याग करता हूँ। अर्थात् ऐसा लेपकृत पानी उपवास अथवा एकासन आदि में भोजन के बाद पीए तो भी पच्चक्खान का भंग नहीं होता है। प्रत्येक शब्द के साथ अथवा अर्थ में वा शब्द (अव्यय) है। वह लेपकृत-अलेपकृत आदि सर्व प्रकार के पानी 'पाणस्स'-पानी के पच्चक्खान में अवर्जनीय रूप में विशेष प्रकार से बताने के लिए समझना, वह इस प्रकार से 'मलेबारेण वा' = जिस वर्तन आदि में लेप न हो, परन्तु छाछ आदि का नितारा हुआ पानी हो, उस अलेपयुक्त पानी के पीने से भी इस आगार के कारण पच्चक्खाण भंग नहीं होता है। तथा 'अच्छेण वा' तीन बार उबाले हुए पानी शुद्ध स्वच्छ जल से 'बहुलेण वा' तिल या कच्चे चावल का घोवन, बहुल जल अथवा गुडल जल कहलाता है । उससे तथा 'ससित्येक वा'=पकाये हुए चावल या मांड, दाना अथवा ओसामन वाले पानी को कपड़े से छान कर पीये तो, इस आगार से पच्चक्खान का भंग नहीं होता है, तथा 'असिस्षेण वा-आटे के कण का नितारा हुमा पानी भी इसी प्रकार के पानी के आगार के समान समझना। अब परम प्रत्याख्यान के सम्बन्ध में कहते हैं-चरम अर्थात् अन्तिम पच्चक्खाण। इसके दो भेद हैं- एक दिन के अन्तिम भाग का और दूसरा भव-जीवन के अन्तिम माग तक का होता है, इन दोनों पच्चरखानों को क्रमशः दिवसचरिम और भवचरिम कहते हैं। भवचरिम प्रत्याख्यान यावज्जीवजब तक प्राण रहे, तब तक का होता है। दोनों के चार-चार आगार हैं, जिन्हें निम्नोक्त सूत्रपाठ में बताए है "विवसपरिमं, भवचरिमं वा पच्चक्खाइ पम्बिह पि आहारं असणं पाणं साइमं साहब अन्नत्वनामोगेगं सहलागारेणं महत्तरागारेचं सव्वसमाहित्तिमागारेणं बोसिए।" यहाँ शंका करते हैं कि एकासन आदि पच्चक्खाण भी इसी तरह से होता है, फिर दिवसचरिम पच्चक्खाण की क्या आवश्यकता है ? अतः दिवसचरिम पच्चक्खाण निष्फल है। इसका समाधान करते हैं कि यह कहना यथार्थ नहीं है। एकासन आदि में 'अण्णत्थणाभोगेणं' इत्यादि आठ आगार हैं, जबकि
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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