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________________ ૨૨૪ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश चला जाय, तब तो साधु भोजन के लिए वहीं बैठा रहे ; लेकिन वह (गृहस्थ ) वहाँ काफी देर तक रुका रहे तो फिर साधु को वहाँ नही बैठे रहना चाहिए। क्योंकि अधिक समय तक एक ही आसन पर (भोजन स्थगित किये ) बैठे रहने से स्वाध्याय, सेवा आदि अन्य दैनिक चर्याओं में विघ्न पड़ेगा; इस कारण साधु ( या साध्वी) वहाँ से उठ कर यदि दूसरे स्थान पर बैठ कर आहार करते हैं तो इस आगार के कारण उनका एकासन पच्चक्खाण भंग नहीं होता । यह विधान साधु की अपेक्षा से किया गया। अब गृहस्थ की अपेक्षा से इस आगार का तात्पर्य यह है कि कोई गृहस्थ एकासन के लिए आहार करने बैठा हो, उस समय किसी के देखने या नजर लगने से हजम न होने की आशंका से यदि वह स्थान बदलता है तो सागारिकागार के कारण उसका एकासन पच्चक्खाण खंडित नहीं होता । तथा आउंटणपसारेणं = माकुंचन-प्रसारण करने से यानी घुटने, जंघा, पैर आदि को सिकोड़ने या पसारने ( फैलाने-लम्बे, चोड़े करने) से । मतलब यह है कि कई व्यक्ति भोजन करते समय अधिक देर तक एक आसन से स्थिरतापूर्वक बैठ नहीं सकते ; बीमारी, अशक्ति या बुढ़ापे आदि के कारण उनके अंगोपांग ज्यादा देर तक एक ही आसन से बैठना सहन नहीं कर सकते, ऐसे व्यक्ति एकासन करते समय यदि शरीर के अंगोपांग सिकोड़ते या पसारते हैं, लम्बा-चौड़ा करते हैं, उसमें जरा-सा आसन चलायमान हो जाय तो इस आगार (छूट) के कारण उनका एकासन-प्रत्याख्यान खंडित नहीं होता । तथा गुरु-अब्भुट्ठाणेणं - इसका अर्थ है एकासन में भोजन करते समय यदि गुरुदेव पधारें तो उनके विनय के लिये आसन पर खड़े हो जाने पर भी इस आगार के कारण पञ्चक्खाण भंग नहीं होता । गुरुविनय खड़े हो कर किया जाता है, जिसे करना आव श्यक है । अत: भोजन करते समय भी कोई बड़े हो कर बड़ों का विनय करता है, तो उससे उसका एकासन भंग नहीं होता । पारिट्ठावणिआगार णं भुक्तशिष्ट अतिमात्रा मे आनीत वस्तु को निरवद्य स्थान में डालना - स्याग कर देना या किसी तपस्वी साधुसाध्वी को दे देना, परिष्ठापन कहलाता है । तात्पर्य यह है कि साधु की भिक्षा में आहार मात्रा से अधिक आने से बच गया हो; दूसरे दिन के लिए उसे रखना तो कल्पनीय नहीं है, ऐसी दशा में उसे परिठाने ( डालने) के सिवाय कोई चारा न हो, उस समय उस आहार को पच्चक्खाण ( एकासन आदि ) वाला खा ले तो परिष्ठापनिकागार के कारण उसका पच्चक्वाण भंग नहीं होता। क्योंकि उक्त आहार को परिठाने फेंकने पर तो जीवविराधना आदि कई दोष लगते हैं, जबकि शास्त्र मर्यादानुसार उस परिष्ठापन योग्य आहार को पच्चक्खाण वाला माधु (साध्वी ) खा ले तो उसमे अधिक गुण हैं। इस कारण बढ़ा हुआ आहार गुरु आज्ञा से पच्चक्खाण वाला कर ले तो उसका पच्चक्खाण भंग नहीं होता । 'बोसिरह' - अर्थात् इन भगारों के अलावा एक ही आसन और आहार के अतिरिक्त आसन या आहार का त्याग करता हूं = अब एकलठाणा के पच्चक्खाण का स्वरूप बताते हैं । इसमें सात आगार हैं। इसका पाठ भी एकासन के समान ही है । सिर्फ 'एगासणं' के बदले 'एगलठाणं' बोलना और आउंटण पसांरगेणं का आगार छोड़ कर सभी आगारों को बोलना चाहिए। क्योंकि एगलठाणा में यह नियम है कि शरीर के अंग जिस तरह रखे हों, उसी तरह अन्त तक रख कर भोजन करना चाहिए । अर्थात् एक ही स्थिति में अंगोपांग रखना एकलठाणा है। मुंह और हाथ को हिलाए बिना तो भोजन किया ही नहीं जा सकता, अतः इन दोनों को हिलाने का इसमें निषेध नहीं है । आउटण-पसारेणं आगार को छोड़ने का विधान एकासन और एकलठाणा पच्चवखाण में अन्तर बताने के लिए किया गया है । अन्यथा, ये दोनों पच्चक्खाण एक सरीखे हो जाते । अब आयम्बिल पच्चमखाण का स्वरूप बताते हैं। इसमें आठ आगार है । आयंबिल पच्चक्खाण का सूत्रपाठ इस प्रकार है
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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