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________________ 'इच्छामि खमासमणो' के अवशिष्ट पाठ पर विवेचन ३७७ संयम की यात्रा में तो वृद्धि हो रही है, तुम्हारी भी उस यात्रा में आगे वृद्धि होती होगी ? अब निग्रह करने योग्य पदार्थ के विषय में शिष्य फिर से कुशलमंगल पूछता है - जवणिज्जंच में उसमें 'ज' अनुदात्त स्वर से उच्चारण करते हुए पूर्ववत् हाथ ओघे से स्पर्श करे, बाद में दोनों हाथ उठा कर ललाट की ओर ले जाते हुए बीच में चौड़ा करके स्वरित स्वर से 'व' का उच्चारण करे और ललाट पर आते ही उदात्त स्वर से 'णि' का उच्चारण करे, यह तीन अक्षर बोलने पर प्रश्न अधूरा होने पर भी उत्तर की राह देखे बिना ही फिर अनुदात्त स्वर से 'ज्ज' बोलते हुए दोनों हाथों से रजोहरण का स्पर्श करे, बाद में रजोहरण को ललाट की ओर ले जाते हुए मध्य में हाथ चौड़े कर स्वरित स्वर से 'च' का उच्चारण करे, फिर हाथ से ललाट का स्पर्श करते हुए उदात्त स्वर से 'में' शब्द उच्चारण करे । उसके बाद गुरु महाराज के प्रत्युत्तर की राह देखे और उसी अवस्था में बैठा रहे । 'जवणिज्जच में' का अर्थ है-नियत्रण करने योग्य आपको इन्द्रियाँ और मन उपशमादि के सेवन से अबाधित हैं ? तात्पर्य यह है कि 'आप का शरीर, इन्द्रियाँ तथा मन पोड़ा से रहित हैं ? इस तरह भक्तिपूर्वक पूछ कर शिष्य ने गुरु का विनय किया। इसके बाद गुरुदेव ने उत्तर दिया कि 'एवं' हाँ, इसी तरह इन्द्रिय आदि से मैं अबाधित हूं।' इसके बाद शिष्य ओघ पर दो हाथ और मस्तक लगा कर अपने अपराध की क्षमायाचना के लिए इस प्रकार कहता है -'खाममि बमासमणो ! देवसियं बहकम' अर्थात् हे श्रमागुणयुक्त श्रमण ! आज सम्पूर्ण दिन में अवश्य करने योग्य अनुष्ठान में विराधनारूप मेरे अपराध हुए हों, उनके लिए आपसे क्षमा मांगता हूं, उसके बाद गुरु भी कहे कि 'अहमबि खामेमि'=मैं भी तुम्हें खमाता हं ।' अर्थात्-पूरे दिन भर में तुम्हारे प्रति हित-शिक्षा आदि में प्रमाद से अविधि से कोई अपराध हुए हों तो उनके लिए मैं भी क्षमा चाहता हूं। इसके बाद शिष्य नमस्कारपूर्वक क्षमायाचना करके अपने पैर के पीछे की भूमि का प्रमार्जन कर अवग्रह से बाहर आ कर आवस्सिाए' से ले कर 'जो मे महमारो को' तक का सूत्र पाठ का उच्चारण करे । इस पाठ में अपने अतिचारों को निवेदन करने हेतु आलोचना (आत्मनिवेदन) नामक प्रायश्चित्त का सूचक सूत्र है। उसके बाद तस्स खमासमणो पडिक्कमामि' इत्यादि पाठ में प्रतिक्रमण के योग्य प्रायश्चिन विधि की सूचना है । और इसे साधक-फिर मैं ऐसा अपराध नहीं करूंगा और आत्मा को शुद्ध करूंगा' इस तरह की बुद्धि से अवग्रह से बाहर निकलते हुए बोले । 'आवम्सिआए'---इसका अर्थ है-चरणसत्तरी-करणसत्तरीरूप अवश्य करने योग्य कार्यों के आसेवन सूचित करते हुए उसके निमित्त से अयोग्य सेवन हुआ हो, उसका 'परिक्कमामि'=प्रतिक्रमण करता हूं। अर्थात् उससे पीछे हटता हूं, यह सामान्य अर्थ कह कर अब विशेषरूप से कहते हैं .-'खमासमणाणं देवसिमाए आसायणाए' अर्थात् क्षमाश्रमण गुरु महाराज के प्रति पूरे दिन में की हुई ज्ञानादि लाभ की होने वाली आशातना की हो, उन अपराधों का मैं प्रतिक्रमण करता हूं। कितनी आशातनाएँ ? उसे कहते हैं 'तित्तीसन्नयराए' अर्थात गुरु महाराज की तैतीस आशातनाएं होती हैं, उनमें से दो, तीन या इससे अधिक आशातनाएं लगती हैं। सम्पूर्ण दिन में अनेक आशातनाएं लगने की संभावना होने से यहां पर सभी आशातनाओं का उल्लेख किया है । इन आशातनाओं पर आगे विवेचन करेंगे। इस सम्बन्ध में कुछ विशेष कहते हैं-'जंकि चि मिन्छाए' अर्थात जो कोई मिथ्याभाव से यानी उसके निमित्त से विपरीत भावों से किया हो. मणदुक्काए, जयदुक्काए, कायदुक्काए अर्थात् दुष्ट मन से या प्रदेष के कारण, दुष्ट असभ्य कठोर वचन बोल कर, काया की दुष्टता अथवा अत्यन्त सट कर बैठ कर या साथ चलते शरीर की कुचेष्टा द्वारा आशातना की हो । उनमें भी 'कोहाए, माणाए, मायाए, लोमाए-क्रोध-सहित, मान-सहित, माया-सहित या लोभ ४८
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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