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________________ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश सहित । अर्थात् क्रोधादि करने से या किसी प्रकार के विनयभंग आदि से होने वाली अशातनाएं दिन में की हों । इसी प्रकार पक्खी, चोमासी, संवत्सरी-सम्बन्धी काल में हुई हो तथा इस जन्म से पूर्व जन्मों में अथवा भूतकाल या भविष्यकाल में जो आशातना हुई हों, साधक उन सबका ग्रहण करके निवेदन करता है --- 'सबकालियाए'-अर्थात् सर्वकालविषयक आशातना । भविष्यकाल की नाशातना किस तरह से होती है ? इसका उत्तर देते हैं कि 'कल गुरु का इस तरह अनिष्ट या नुकसान करूंगा' इस प्रकार विचार करने से, इसी तरह आगामी जन्मों या भूतकाल में भी में उनके वध आदि का निदान करना संभव हो सकता है, इस प्रकार तीनों काल-सम्बन्धी आशातनाओं से 'सम्वमिच्छोक्याराए' अर्थात सर्व दंभ-कपट, या माया से पूर्ण गलत प्रवृत्तिरूप असत्क्रिया की आशातनाओं से तथा 'सन्बधम्माइक्कमणाए भासायणाए'=अष्ट-प्रवचनमाता का पालन, सामान्यरूप से संयम करने योग्य सर्वकार्यरूप सर्वधर्मों में जो अतिक्रमण-विराधनारूप सर्वधर्मों की इत्यादि गुरु की आशातनाओं से. जो मे अइआरोको -मैंने जो कोई अतिचार =अपराध किया हो, 'तस्स खमासमणो ! पडिक्कमामि' = हे क्षमाश्रमण ! मैं उन अतिचारों का आपकी साक्षी से प्रतिक्रमण करता हूं, अर्थात् फिर नहीं करने का संकल्प करके अपनी आत्मा को अपराधों से पीछे हटाता हूं। तथा 'निदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि' अर्थात् संसार से विरक्त मैं मतकाल की अपनी पापयुक्त आत्मा की प्रशान्तचित्त से वर्तमानकाल के शुद्ध अध्यवसायों से निन्दा करता हूं, आपकी साक्षी से दुष्टकार्य करने वाली मेरी आत्मा को गर्दा करता हूं, और आत्मा की अशुद्धप्रवृत्ति के अनुमोदन का त्याग करता हूं।' इस प्रकार गुरुवंदन-सूत्र बोल वर फिर उसी प्रकार अवग्रह के बाहर खड़ा हो कर इच्छामि खमासमणो से ले कर बोसिरामि तक दूसरी बार सम्पूर्ण पाठ बोले । परन्तु इसमें इतना विशेष समझे कि दूसरी वार के गुरुवंदन में अवग्रह से बाहर निकले बिना ही 'आवस्सियाए' पद छोड़ कर शेष सारा सूत्रपाठ बोले । अब वंदनक-विधि बताने वाली आगमोक्त गाथा का भावार्थ यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं आचार का मूल विनय है । वह गुणवान की सेवा करने से होता है । तथा विधिपूर्वक गुरु को बंदन करने से होता है, और उस द्वादशावर्त वंदन की विधि इस तरह जानना ॥१॥ गुरुवंदन करने का हक्क साधक यथाजात अवस्था (जन्मसमय की मुद्रा में स्थित हो कर अवग्रह के बाहर संडासा का प्रमार्जन कर उत्कटिकासन में बैठ कर मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करके शरीर के ऊपर के आधे भाग का प्रमार्जन करे ।।२।। बाद में खड़ा हो कर कमर पर कुहनी से चोलपट्टे को दबा कर (पहले चोलपट्ट पर डोरी नहीं बांधते थे) शरीर को नमा कर युक्तिपूर्वक पीछे का भाग धर्म की निंदा न हो, इस प्रकार से ढक ले ॥३॥ दाहिने हाथ की अंगुलियों मे मुहपत्ती और दोनों हाथों में रजोहरण पकड़ कर पूर्वोक्त बत्तीस दोषों से रहित निर्दोष वंदन के लिए गुरुमहाराज के सामने इस प्रकार उच्चारणपूर्वक बोले ॥४॥ इच्छामि समासमणो मे निसोहिमाए' तक बोल कर बाद में गुरु का 'छंदेण' उत्तर सुन कर अवग्रह की याचना करने के लिए ॥५॥ 'अणुजाणह मे मिउग्गह' बोले और गुरु 'अणुजाणामि' कहे, तब अवग्रहभूमि में प्रवेश करके संडासा प्रमार्जन कर नीचे बैठे ।६। इसके बाद रजोहरण की दशियों का प्रमार्जन कर मस्तक से स्पर्श कराना उपयोगी होगा, ऐसा मान कर भूमि पर स्थापन करे उसके बाद प्रथम || बांये हाथ से एक ओर से पकड़ी हुई मुहपत्ती से बांये कान से ले कर दाहिने कान तक का और ललाट का प्रमार्जन करे ॥८॥ और सिकोड़े हुए बाँये घुटने पर प्रमार्जन करके उस पर मुहपत्ती रखे तथा ओष के मध्यभाग में गुरु के चरण-युगलों की कल्पना (स्थापना) करे ॥६॥ तदनन्तर दोनों हाथ लम्बे करके दोनों जांघों के
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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