SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 392
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश का मत है । टीकाकार का मत है कि ऐसे समय में मन, वचन और काया तीनों से वन्दन करने का निषेध है, अत: शिष्य संक्षिप्त वंदन कर ले । और यदि गुरु दूसरे कार्य में रुके न हों और उसे वंदन करने की आशा दे दें, और कहें कि.-'छन्देन =अभिप्रायेण' तुम्हारी इच्छा हो तो मुझे वंदन करो ; मुझे आपत्ति नहीं ; खुशी से वंदन करो।' तब वंदन करने हेतु साढ़े तीन हाथ दूर खड़े होकर कहे-अणुजाणह मे मिउग्गह' 'आप मुझे अवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा दीजिए। यहां पर चारों दिशा में अपने शरीर के प्रमाण में साढ़े तीन हाथ भूमि का आचार्य महाराज का अवग्रह होता है, उस में उनकी अनुमति बिना प्रवेश नहीं कर सकता ; कहा भी है-चारों दिशा में अपने शरीर के प्रमाणानुसार स्थान गुरु का अवग्रह होता है, गुरु की आज्ञा बिना उसमें प्रवेश करना कदापि कल्पनीय नहीं है।' तत्पश्चात् गुरु महाराज कहें 'अणुजाणामि' यानी 'मैं प्रवेश करने की अनुज्ञा देता हूँ', तब शिष्य भूमि का प्रमार्जन कर 'निसीहि' कह कर अवग्रह में प्रवेश करे । गुरु महाराज के पास जाने के समय 'निसीहि' का अर्थ है-'सर्व अशुभ व्यापारों का त्याग करता हूँ' बाद में संडासा के प्रमार्जनपूर्वक नीचे बैठे और गुरुमहाराज के चरणों के पास जमीन पर ओघा रख कर उस ओघे की दशियों (फलियों) के मध्य भाग में कल्पना से गुरु चरण-युगल की स्थापना करके दाहिने हाथ से मुहपत्ति पकड़ कर, दाहिने कान से बांये कान तक ललाट को तथा दाहिने घुटने को तीन बार प्रमार्जन कर मुहपत्ती दाहिने घुटने पर स्थापित करे। उसके बाद 'अकार' उच्चारण करते ही रजोहरण को स्पर्श करके, होकार का उच्चारण करे, उस समय ललाट का स्पर्श करे, उसके बाद 'का' अक्षर के उच्चारण करते समय फिर उसी करह हाथ से ओघे की दशियों का स्पर्श करना और 'घ' बोलते समय दूसरी बार ललाट के मध्य में स्पर्श करना, उसके बाद फिर 'का' बोलते वक्त ओघे और 'य' बोलते वक्त ललाट का स्पर्श करना, उसके बाद 'संफासं' बोलते हुए दो हाथ और मस्तक से रजोहरण का स्पर्श करे उसके बाद मस्तक पर दो हाथ की अंजलि कर गुरुसम्मुख दृष्टि रख कर 'बमणिम्जो मे किलामो' से ले कर 'शिवसो वहक्कतो' तक सूत्र बोलना । इन पदों का अर्थ इस प्रकार है - अहो कायं=गुरु की काया-चरणों को 'काय' =हाथ और मस्तक रूपी मेरी काया से 'संफास' - स्पर्श करता हूँ। यहां अध्याहार से, अर्थात् आपश्रीजी के चरणों को मैं नमस्कार करता हूँ, उसकी आज्ञा दें, पहले मांगी हई आज्ञा के साथ इसका सम्बन्ध है। अनुमति बिना गुरु का अंग-स्पर्श करने का अधिकार नहीं है । बाद में खमणिम्जो मे आप क्षमा करने योग्य हैं, हे भगवन् ! आपको 'किलामो अर्थात् मेरे स्पर्श से आपके शरीर में दुःखरूप तथा 'अप्पकिलंताणं'=अल्पमात्रा में पीड़ा हुई। 'बहुसुभेज'=बहुत सुख रूप 'मे'=आपका दिवसो वहक्कतो' -- दिन पूर्ण हुआ है ? यहाँ दिन शब्द से रात्रि, पक्ष, चौमासी और संवत्सरी भी प्रसंगानुसार समझ लेना चाहिए । इसी तरह दो हाथ जोड़ कर गुरु महाराज का प्रत्युत्तर सुनने की इच्छा से शिष्य को गुरु कहे कि 'तहत्ति-वैसे ही हुआ है ; यानी मेरा दिन सुखरूप से पूर्ण हुआ है, इस प्रकार गुरु के शरीर के कुशल-समाचार पूछे । अब तप इसे सम्बन्धी कुशलता पूछते हैं-'जत्ता भे' 'ज' इसे अनुदात्त स्वर से उच्चारण करते समय दोनों हाथों से रजोहरण की दशियों का स्पर्श करे, बाद में हाथ को उठाते हुए रजोहरण और ललाट के मध्य में चौड़ा करते हुए 'त्ता' स्वरित स्वर से उच्चारण करे और अपनी दृष्टि गुरु-मुख के सामने रखे, फिर उन हाथों से ललाट का स्पर्श करते समय उदात्तस्वर से 'भे' अक्षर का उच्चारण करे । यहाँ 'जत्ता'=यात्रा और 'भे'=आपश्री के अर्थ में है-- अर्थात् भगवन् ! आप की मायिक, भायोपशमिक और औपशमिक भाव वाली संयमयात्रा तप और नियमरूप यात्रा-वृदियुक्त है ? गुरुदेव उत्तर दें कि 'तुन्भे वह भावार्थ यह है--मेरी तप,
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy