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________________ गुरुवन्दन : पाठ, विधि और विवेचन ३७५ वंदन में शिष्य को गुरु से प्रश्नरूप छह अभिलापाएं होती हैं -(१) इच्छा (२) अनुज्ञा (३) अव्याबाध (४) संयमयात्रा (५) समाधि (६) अपराध की क्षमायाचना । अन्य स्थानों पर भी ऐसी ही छह अभिलापाएं कही हैं । इन छटो के लिए जो-जो पाठ नियन है, उस-उस पाठ से शिष्य प्रश्न करता है । वह शिष्य के षट्-स्थानरूप गुरु वंदन के द्वारा जानना उक्त छहों प्रश्नों का उत्तर गुरु महाराज इस तरह मे देते हैं --(१) जैसी तुम्हारी इच्छा (२) अनुजा देता हूं (३) वैसे ही है (४) तुम्हें भी इसी प्रकार से है ? (५) इसी तरह से है और (६) मैं भी तुम से क्षमा चाहता हूं। कहा भी है-'तुम्हारी इच्छानुसार आज्ञा देता हूं, वैसे ही है, तुम्हें भी वैसे ही हो, इसी तरह मे है, और मैं भी तुम्हें खमाता हूं. इस तरह गुरु महाराज छह उत्तर देते है । इन दोनों की व्याख्या उपयुक्त प्रसंगवश सूत्र की व्याख्या के समय करेंगे । वह गुरुवन्दनसूत्र इस प्रकार है-- "इच्छामि खमासमणो | बंदिउ जावणिज्जाए निसोहिआए अणुजाणह मे मिउग्गह, निसीहि, अहो कायं कायसफासं खमणिज्जो में। किलामो, अप्पकिलंताणं बहुसुभेण में ! विवसो वइकतो? जत्ता भे! जवणिज्जं च भे! खामेमि खमासमणो ! देवसिय वइक्कम आवस्सियाए, परिकमामि खमासमणाणं देवसिआए, आसायणाए, तित्तीसन्नयस जं कि चि मिच्छाए मणदुक्कडाएं, वयदुक्कडाए, कायदुक्कडाए, कोहाए. माणाए, मायाए, लोमाए, सव्वकालिआए, सव्वमिच्छोवयाराए सम्बधम्माइक्कमणाए आसायणाए जो मे अइरो कओ, तस्स खमासमणो परिक्कमामि, निवामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि।" सूत्र-व्याख्या यहाँ पर द्वादशावतं वदन की इच्छा से शिष्य खमाममणरूप लघुवंदनपूर्वक संडासा प्रमार्जन करके बैठे-बैठे पहले कहे अनुसार पच्चीस बोल मे मुहपनी और पच्चीस वोल से शरीर का पडिलेहण करे, उसके बाद परमविनयपूर्वक स्वयं मन-वचन-काया से शुद्ध होकर गुरुमहाराज के आसन से (अपने शरीरप्रमाणभूमि रूप) साढ़े तीन हाथ अवग्रह के बाहर खड़े हो कर कमर मे ऊपर के भाग को धनुष्य की तरह जरा नमा कर ओघा-मुहपनि हाथ में ले कर वंदन करने के लिए इस प्रकार मे बोले'इच्छामि' अर्थात् मैं चाहता हूं। किसी के दबाब या बलात्कार से बदन नहीं करता; अपितु अपनी इच्छा से वंदन करता हूं। 'खमासमणों' हे थमाश्रमण ! इसमें क्षम् धातु के स्त्रीलिंग का आ प्रत्यय लगने से क्षमा शब्द बना है । इसका अर्थ सहन करना होता है। तथा श्रम धातु के कर्ता के अर्थ में अन् प्रत्यय लगने से श्रमण रूप बनता है। इसका अर्थ होता है-- मंसार के विषय में उदासीन हो कर जो नप करता है, अथवा ज्ञान-दर्शन-चारित्र के बारे में या आत्मसाधना में जो स्वयं श्रम (पुरुषार्थ) करता है, उसे श्रमण कहते हैं । इमका प्राकृत भाषा के मम्बोधन में खमासमणों बनता है। क्षमा ग्रहण करने से मार्दव, आर्जव आदि गुणों का भी ग्रहण हो जाता है । इसका अर्थ है --श्रमा आदि प्रधान गुणों से युक्त श्रमण = क्षमाश्रमण । यहाँ सूचित किया गया है कि-ऐसे क्षमादि गुणों से युक्त होने से वास्तव में वे वन्दनीय हैं; अब क्या करने की इच्छा है ? 'बंदिउ" अर्थात् --आपको वंदन करना है । वह किस तरह ? 'जावणिम्जाए निसीह आए" इममें निसोहिआए विशेष्य और जावणिज्जाए विशेषण है, निसीहिआए अर्थात् जिसमें प्राणातिपात आदि पाप नहीं हैं, ऐसी जावणिज्जाए-सशक्त काया से। इस सम्पूर्ण वाक्य का अर्थ इस प्रकार है-हे क्षमादि गुणों से युक्त श्रमण ! वंदन करने में हिंसा बादि न हो, इस तरह सशक्त काया से मैं आपको वंदन करना चाहता हूं। यहां पर थोड़ा-सा रुकना चाहिए। इस वंदन के समय गुरु आदि दूसरे कार्य में लगे हों, अथवा कोई विघ्नवाला कार्य हो तो गुरु महाराज कह दें कि घोड़े समय के बाद करना, अभी रहने दे' कारण कहने योग्य हो तो कहें, नहीं कहने योग्य हो तो न भी कहें, ऐसा चूर्णिकार
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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