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________________ ૬૪ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश प्रणिधान = प्रार्थना करके ; श्रुत को ही वन्दन करने के लिए कायोत्सर्ग के निमित्त 'सुअस्स भगवमो करेमि काउस्सग्ग का पाठ - 'बंदण वत्तियाए' से ले कर 'अप्पाणं बोसिरामि' तक बोलना चाहिए। इसका अर्थ पहले कह आये हैं । केवल 'सुअस्स भगवओ' का अर्थ बाकी है । श्र तभगवान् का अर्थ है - प्रथम सामायिक सूत्र (करेमि भंते सूत्र ) से ले कर बिन्दुसार नाम के दृष्टिवाद के अन्तिम अध्ययन तक अर्थात् द्वादशांगीरूप समग्र ‘श्रुत'; यश, प्रभाव आदि भगों से = ऐश्वर्यों से युक्त होने से भगवत्स्वरूप श्र तभगवान् की आराधना करने के लिए काउस्सग्ग करता हूं । इसके बाद पहले की तरह काउसग्ग पार कर श्रुत की तीसरी स्तुति बोलना चाहिए। तत्पश्चात् श्रुत में कही हुई अनुष्ठान- परम्परा के फलरूप सिद्ध भगवान् को नमस्कार करने के लिए निम्नोक्त गाथा बोले 'सिद्धागंणं बुद्धा पारगयाणं परंपरगयाणं । लोअग्गमुवगयाणं, नमो सया सव्वसिद्धाणं ॥१॥ सिद्ध, बुद्ध, संसार-पारंगत एवं परम्परा से सिद्ध बने हुए, लोक के अग्रभाग पर स्थित सर्वसिद्धों को सदा मेरा नमस्कार हो ॥१॥ 'सिङ्घाणं' - अर्थात् सिद्ध यानी कृतकृत्य बने हुए, जो गुणों से सिद्ध हैं, पूर्ण हो गए हैं, भौतिक विषयों की जिन्हें कोई भी इच्छा नहीं है । पकाये हुए चावल फिर से नहीं पकाए जाते, उसी तरह सिद्ध हुए, फिर किसी भी प्रकार की साधना की इच्छा नहीं रखते। ऐसे सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार करता हूँ । इस प्रकार वाक्यसम्बन्ध जोड़ लेना चाहिए। उसमें भी सामान्यतया कर्म आदि अनेक प्रकार से सिद्ध होते हैं । जैसे कि शास्त्रों की टीका में कहा है- कर्म, शिल्प, विद्या, मन्त्र, योग, आगम, अर्थ, यात्रा, अभिप्राय, तप, और कर्मक्षय इस प्रकार इन ११ बातों में सिद्ध होते हैं । (१) कर्मसिद्ध - किसी आचार्य के उपदेश के बिना ही किसी ने भार उठाने, खेती करने, व्यापार करने, इत्यादि कार्यों में से कोई कर्म बारबार किया और उस कर्म में वह सह्यगिरि सिद्ध के समान निष्णात हो गया, तब उसे कर्मसिद्ध कहते 1 (२) शिल्पसिद्ध-- किसी आचार्य के उपदेश से कोई लुहार, सुथार, चित्रकला आदि शिल्पकलाओं में से किसी कला का अभ्यास करके कोकास सुधार के समान पारंगत हो जाता है ; वह शिल्पसिद्ध होता है । ( ३- ४) विद्यासिद्ध, मंत्रसिद्ध - होम, जाप आदि से फल देने वाली विद्या कहलाती है, और जप आदि से रहित केवल मन्त्र बोलने से सिद्ध हो, वह मन्त्र है । विद्या की अधिष्ठायिका देवी होती है, जबकि मन्त्र का अधिष्ठायक देव होता है। किसी विद्या का अभ्यास करते-करते किसी ने सिद्धि प्राप्त कर ली हो, वह आर्य खपुटाचार्य के समान विद्यासिद्ध कहलाता है । और किसी मन्त्र को सिद्ध कर ले, वह स्तम्भाकर्ष के समान मन्त्रसिद्ध हो जाता है (५) योगसिद्ध - अनेक औषधियों को एकत्रित करके लेप, अंजन आदि तैयार करने में निष्णात हो, वह आयं समिताचार्य के समान योगसिद्ध कहलाता है ( ६ ) आगमसिद्ध - आगम अर्थात् द्वादश (बारह) अंगों एवं उपांगों तथा सिद्धान्तों, नयनिक्षेपों आदि प्रवचनों व उसके असाधारण अर्थों का गौतमस्वामी के समान विज्ञाता आगमसिद्ध होता है (७) अर्थसिद्ध - अर्थ अर्थात् धन । मम्मन के समान दूसरों की अपेक्षा जो अत्यधिक धन प्राप्त करने में कुशल हो, वह अर्थसिद्ध होता है (८) यात्रासिद्ध - जलमार्ग अथवा स्थलमार्ग में जो निर्विघ्न रूप से तुण्डिक के समान यात्रा पूर्ण कर चुका हो, वह यात्रासिद्ध होता है (९) अभिप्रायसिद्ध - जिस कार्य को जिस तरह करने का अभिप्राय (इगदा) किया हो, उसे अभयकुमार के समान उसी तरह सिद्ध कर ले, वह अभिप्रसिद्ध कहलाता है (१०) तप सिद्ध - दृढ़प्रहारी के समान जिसमें सर्वोत्कृष्ट तप करने का सामर्थ्य प्रगट हो गया हो, वह तपः सिद्ध है और (११) कर्मसिद्ध - मरुदेवी माता के समान ज्ञानावरणीय बादि
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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