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________________ अत-चारित्रधर्म की नमस्कारपूर्वक स्तुति ३६१ सुज्ञजनो ! सिद्ध एवं सदा संयमधर्म के अभिवर्द्धक जिनमत (धर्म) को प्रयत्न (आदर) पूर्वक नमस्कार करता हूं, जो सुर, नागकुमार, सुपर्णकुमार, किन्नरगण आदि असुरों द्वारा सच्चे भावों से पूजित है । जिस धर्म के आधार पर यह लोक टिका हुआ (प्रतिष्ठत) है । तथा जिसमें धर्मास्तिकाय आदि सारे द्रव्य एवं तीनों लोक के मनुष्य व सुर-असुर आदि अपने-अपने स्थान पर रहे हुए हैं। ऐसे संयम-पोषक तथा श्र तज्ञान-समृद्ध एवं दर्शनयुक्त प्रवृत्ति से शाश्वतधर्म की वृद्धि हो और विजय की परम्परा से चारित्रधर्म की नित्य वृद्धि हो। 'सिङ्घ' का अर्थ है-सफल (यानी यह जिनधर्म नि:संदेह फलयुक्त है) अथवा सिद्ध का अर्थ है-सभी नयों मे धर्म व्यापक होने के कारण अथवा सर्वनय इसमें समाविष्ट हो जाते हैं, इस कारण यह सिद्ध है । अथवा कष, छेद, और तापरूप त्रिकोटि से परीक्षित होने के कारण शुद्ध रूप में होने से सिद्ध है। अथवा यह सिद्ध विशेषण थु त-आगमरूप है 'भो!=पश्यन्तु भवन्तः' आदरपूर्वक आमंत्रण करते हुए कहते हैं--'अजी' आप देखिये तो सही कि इतने अर्से तक मैंने यथाशक्ति सदा संयमाभिवर्द्धक जिस जिनधर्म की आराधना में प्रसन्नतापूर्वक प्रयत्न किया है, उस जिनमत को नमस्कार हो -- 'णमो जिणमए।' इस इस प्रकार प्रयत्नशील मैं दूसरों को साक्षी में नमस्कार करता हूं। यहां प्राकृत भाषा के अनुसार चतुर्थी विभक्ति के अर्थ मे सप्तमी विभक्ति हुई है। इस श्रु तज्ञानरूप धर्म के योग में 'नंदो सया संजमे' अर्थात् हमेशा चरित्र में आनंद और सयम में वृद्धि होती है। श्रीदशवकालिक सूत्र में कहा है कि 'पढमं नाणं तमो बया' अर्थात् पहले ज्ञान और बाद में दया (संयम) होती है। वह संयमधर्म कैसा है ! उसे कहते हैं 'देव-नाग-सुवण्ण-किन्नर गणस्सन्भूअ भावच्चिए' अर्थात् वैमानिक देव, धरणेन्द्र, नागदेव, सुपर्णकुमार, किन्नर, व्यन्तरदेव उपलक्षण से ज्योतिषी आदि सभी देव उस संयमधर्म का शुद्ध अन्तःकरण के भाव से पूजन करते हैं। यहां देव पर अनुस्वार है, वह छंदशास्त्र के नियमानुसार पादपूर्ति के लिए समझना चाहिए । तथा देवता आदि से हमेशा संयमी पूजित हैं ही। और जिनधर्म का वर्णन करते हैं-'लोगो जत्थ पइट्ठिओ जगमिणं' अर्थात् जिस जिनमय धर्म में लोक-दृश्यमान लोक या जिस (ज्ञानालोक) से सारा जगत् देखा जाय, उस ज्ञान से यह संसार प्रतिष्ठित हैं, क्योंकि जितना भी शुद्ध ज्ञान है वह जिनागम के अधीन है; यह जगत् तो ज्ञेयरूप में है। तात्पर्य यह है कि जिनदर्शनरूप आगम की सेवा करने से ही ज्ञान प्रगट होता है और ज्ञान जिनागम में है तथा समस्त जगत् भी आगम से देखा या समझा जाता है। इसलिए यह जगत् भी जिनागम में ही निहित है । कितने ही मनुष्य इस दृश्यमान लोक (सृष्टि) को जगत् मानते हैं, वह ठीक नही । इसीलिए यहां जगत् का विशेपण दिया है-'तेलुक्कमच्चासुरं' अर्थात् मनुष्य, देव व उपलक्षण से शेप सभी जीव यानी ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यक्लोकरूप आधारजगत् और उसमें रहे हुए सभी जीव-अजीवादिभावरूप आधेयजगत् है। इस तरह आधाररूप आधेयरूप सारा जगत् जिनदर्शन में प्रतिष्ठित है। इसप्रकार जिनमतरूप यह 'धम्म' (श्रत-चारित्ररूप) धर्म 'सासमो' कभी नाश न होने वाला अविनाशी धर्म; वड्ढउ =बढ़े। वह किस तरह से ? "विजयमो धम्मुत्तरं' अर्थात् मिघ्यावादियों पर विजय पाता हआ तथा श्रतधर्म की आराधना के बाद चारित्रधर्म में बडउ=वृद्धि हो। अतधर्म की आराधना से चारित्रगुण में वृद्धि होती है, इसलिए कहा-'मोक्षार्थी को हमेशा ज्ञानवृद्धि करनी चाहिए और तीर्थकर-नामकर्म के कारणों में एक कारण यह भी बताया है-'अपुग्वनाणगहणे' अर्थात् अपूर्व अभिनव, ज्ञान-ग्रहण करने से तीर्थकर-नामकर्म बन्धन होता है। यह प्रार्थना मोक्षबीज के समान होने से वास्तव में अशंसारहित है। इसलिए यह
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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