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________________ 'सिद्धाणं बुदाणं०' गाथा पर विवेचन बाठ कर्मों को मूल से नष्ट करने से जो सिद्ध हो जाता है, या हुआ है ; वह कर्मसिद्ध कहलाता है। उपर कहे हुए ११ प्रकार के सिद्धों में से दस को छोड़ कर यहां ग्यारहवें कर्मसिद्ध को ग्रहण करना चाहिए । ऐसे कर्मसिद्ध को नमस्कार करने के कारण साधक सिद्ध हो जाता है । 'बमाणं'- अर्थात बोधित । अज्ञानरूपी निद्रा में सोये हए जगत में दूसरों के उपदेश बिना जीवादि तत्त्वों के स्वरूप को जान कर वोधित हुए । अर्थात् बोध-(ज्ञान) होने के बाद कर्मों का सर्वथा नाश करके जो सिद्ध हुए हैं, उनको मेरा नमस्कार हो। कोई दार्शनिक यह कहते हैं कि-'सिद्ध सिद्धावस्था में संसार और निर्वाण का त्याग करके रहते हैं, जगत् के कल्याण के लिए वे संसार या निर्वाण में नहीं रहते, और जगत् उनका स्वरूप नहीं जान सकता। वे चिन्तामणिरत्न से भी बढ़कर और महान् हैं।' उनके मत का खण्डन करने हेतु कहते हैं-पारगयाणं = संसार का पार पाने वाले यानी संसार के प्रयोजन का अन्त पाने वाले, सिद्धों को नमस्कार हो। इस विषय में यहच्छावादियों का कहना है-जैसे कोई दरिद्र सहसा राजा हो जाता है, वैसे जीव भी सहसा सिद्ध हो जाता है। इसमें क्रम जैसी कोई वस्तु नहीं है। इस बात का खण्डन करते हुए कहते हैं -परंपरगयाणं इस का अर्थ है-परम्परा से बने हुए सिद्ध। तात्पर्य यह है--परम्परा से चौदह गुणस्थानक के क्रम से जिन्होंने बात्मा का पूर्ण विकास कर लिया है, वे; अथवा किसी प्रकार कर्म के क्षयोपशम आदि के योग से प्रथम सम्यग्दर्शन फिर सम्यग्ज्ञान और उसके बाद सम्यक्चारित्र; इस क्रम से गुणों का विकास करते हुए परम्परा से सिद्धरूपमोक्षस्थान जिन्होंने प्राप्त किया है, उन्हें नमस्कार करता हूं। कितने ही दार्शनिक मोक्ष का स्थान, जो नियत है, उसे अनियत मानते हैं । उनका कहना है-'जब आत्मा के संसार का अथवा अज्ञानरूपी क्लेश का नाश होता है. तब वह आत्मा रहता तो इसी संसार में है, मगर उसका विज्ञान स्थिर रहता है, और क्लेश का सर्वथा अभाव हो जाने से इस संसार में उसे कदापि लेशमात्र भी बाधा अथवा दुःख नहीं होता है, उनकी इस मान्यता का खण्डन करने के लिए कहते हैं-लोयग्गमुवगयाणं = लोक के अग्रभाग में चौदह राजू लोक पर अन्त भाग में इषत्प्रागभारा' नाम की सिद्धशिला पृथ्वी है, उसके 'उप' यानी समीप में ; न कि अन्य स्थान में । सभी सिद्ध कर्मों का क्षय करके उसी स्थान पर स्थित हैं। कहा भी है-'जहाँ सिद्ध की एक आत्मा है, वहीं पर कर्मों का क्षय करके जन्ममरण से मुक्त हुई अनंत दूसरी सिद्ध आत्माएं एक दूसरे को बाधा पहुंचाए बिना, अनंतसुख-युक्त सुख से रहती हैं, उन्हें मेरा नमस्कार हो। यहाँ शंका करते हैं कि 'जब सभी कर्मों का क्षय हो जाता तब जीव की लोकान तक गति किस तरह होती है ? इसका उत्तर देते हैं कि 'पूर्व-प्रयोग आदि के योग से वे सिद्ध जीवगति करते हैं।' कहा है कि - पूर्वप्रयोग की सिद्धि से अर्थात् जैसे धनुष्य से छूटा हुआ बाण पूर्वप्रयोग से स्वयं अपने आप आगे जाता है ; उसी तरह जीव कर्म से मुक्त होने पर अपने आप ऊर्ध्वगति करता है । फिर शंका होती है कि 'जीव सिद्धिक्षेत्र से आगे, ऊंचे, नीचे या तिरछे क्यों नहीं जाता? इसका समाधान करते हैं कि 'गुरुत्व अर्थात् कर्म का वजन समाप्त हो जाने से और नीचे जाने का और कोई कारण न होने से मुक्त जीव नीचे नहीं जाता है. मिट्टी से लिप्त तुम्बा नीचे जाता है, परन्तु मिट्टी दूर होते ही वह ऊर्ध्वगमन करता है ; वैसे ही जीव कर्म से लिप्त हो, वहाँ तक नीचे रहता है, कर्मरहित होते ही वह ऊर्ध्वगमन करता है। जैसे पानी की सहायता के बिना पानी की सतह पर ऊंचाई में नौका नहीं जाती है वैसे ही जीव भी गति में सहायक धर्मास्तिकाय के न होने से लोकान्त से ऊपर नहीं जाता है ; अपितु ऊपर जा कर लोक के अन्त-भाग में रुक जाता है । और तिरछीगति में कारणरूप योग अथवा उसका व्यापार (प्रवृत्ति) नहीं होने से, तिरछी गति भी नहीं करता है। मनः सिद्ध की लोक के अग्रभाग तक ही उर्ध्वगति होती है।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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