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________________ ३६२ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश अज्ञानरूपी अन्धकार के पटल को नष्ट करने वाले, देवसमूह, राजा, चक्रवर्ती आदि से पूजित, मर्यादा को धारण करने वाले और मोहजाल के सर्वथा नाशक श्रु तज्ञान को वन्दन करता हूँ। तम= अज्ञान और 'तिमिर' = अंधकार अर्थात् अज्ञानरूपी अन्धकार अथवा स्पृष्ट, बद्ध और निधत्त ज्ञानावरणीयकर्म अज्ञान-तम है ; और निकाचित ज्ञानावरणीयकर्म तिमिर-अन्धकार है, उनका पडल=समूह ; उसका 'विद्ध सणस्स'=नाश करने वाला अर्थात् अज्ञान और बद्धकर्म का नाशक और सुरगणनरिव-महिमस्स अर्थात् भवनपति आदि चार निकायों के देवों, तथा चक्रवर्ती, राजा आदि द्वारा से पूजित । सुरासुर आदि आगम की महिमा करते हैं । सीमाधरस्स' का अर्थ है-मर्यादा को धारण करने वाले श्रुतज्ञान को । मर्यादा का मतलब है-कार्य-अकार्य, भक्ष्य अभक्ष्य, हेय-उपादेय, धर्म-अधर्म आदि सब की व्यवस्था (मर्यादा) श्रुतज्ञान में ही रहती है । क्वचित् द्वितीयादेः ।।८।३।१३४॥ इस सूत्र से कर्म के अर्थ में द्वितीया के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी विभक्ति होती है । पप्फोडियमोहजालस्स अर्थात् मिथ्यात्व आदि रूप मोहजाल को जिसने तोड़ दिया है, वंदे उस श्रुतज्ञान को मैं वन्दन करता हूं, अथवा उसके माहात्म्य को नमस्कार करता हूं। सम्यग्य तज्ञान की प्राप्ति होने के बाद विवेकी आत्मा में राग-द्वेषकषायादि की मूढता नहीं रहती, उसका विनाश हो जाता हैं। इस प्रकार तज्ञान की स्तुति करके उसी ही के गुण बता कर अप्रमाद-विषयक प्रेरणा करते हुए कहते हैं जाइ-जरा-मर-सोग-पणासणस्स, कल्लाण-पुस्खल-विसाल सुहावहस्स । को देव-बाणव-नरिंद-गणच्चिअस्स, धम्मस्स सारमुबलभ करे पमायं ॥३॥ जन्म, जरा, मृत्यु तथा शोक का सर्वथा नाश करने वाले, कल्याण और प्रभुत विशाल सुख को देने वाले, अनेक देव-दानव-नरेन्द्रगण आदि द्वारा पूजित धर्म (अ तचारित्ररूप) के सार-प्रभाव को जान कर कौन बुद्धिमान मनुष्य धर्म की आराधना में प्रमाद करेगा ? कोकोन बुद्धिमान, धम्मस्स=श्रतधर्म के सारं सामर्थ्य को 'उवलन्म - प्राप्त करजान कर, धर्माचरण में, करे पमायं=-प्रमाद करेगा? अर्थात् कोई भी समझदार मनुष्य उसमें प्रमाद नहीं करेगा । इस धर्म का सामर्थ्य कैसा है ? उसे कहते हैं-जाइ-जरा-मरण-सोग-पणासणस्स अर्थात् जन्म, बुढ़ापा, मृत्यु और मन के शोक आदि दु.खों को मूल से सर्वथा नष्ट करने वाले । श्रत (शास्त्र) में कहे अनुसार धर्म का अनुष्ठान करने से जन्म. जरा का निश्चय ही नाश होता है । श्रुतज्ञान के आधार पर धर्माचरण में सभी अनर्थों के नाश करने का सामर्थ्य हैं; 'कल्लाण' = कल्य यानी आरोग्य और अणति= लाता है, वह कल्याण मोक्ष है । पुक्खल = पुष्कल=बहुत, जरा भी कम नहीं; परन्तु विशाल-विस्तृत सुहावहस्स-सुख की प्राप्ति कराने वाला, अर्थात् श्रुत के अनुसार धर्म का अनुष्ठान करने वाले को अपवर्ग = मोक्ष-सुख प्राप्त होता है, तथा देव-वाणव-नरिदगणन्धिअस्स=वह धर्म (श्रत-चारित्ररूप) देव, दानव, और चक्रवर्ती आदि के समूह से पूजित है । अत: बुद्धिशाली उसकी आराधना में प्रमाद न करे।' ऊपर कहे अनुसार धर्म के रहस्य को प्रगट करने वाले अतज्ञान में अचित्य सामर्थ्य है, उसे कहते हैं सिधे भो ! पयमो णमो जिणमए, नंदीसया संजमे । देवं - नाग - सुवग्ण-किन्नर - गणसम्भूअमावच्चिए । लोगो नत्य पाठिमो नगमिणं तेलुक्कमयासुरं। धम्मो बढउ सासमो विजयलो, धम्मुत्तरं बाउ ॥४॥
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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