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________________ सम्यक्श्रुत के वक्ता अरिहन्त भगवान् की स्तुति अब जिससे उन अरिहन्तों और उनके द्वारा कहे हुए भावों को स्पष्टरूप से जान सकें, ऐसे दीपक के समान सम्यक्त की स्तुति करनी चाहिए। उस श्रुत के वक्ता आप्तपुरुष अरिहन्त भगवान् की सर्वप्रथम स्तुति करते हैं पुक्सरवरवीवढे धायहखरे म जंबूबीवे म। भरहेरवय-विहे घमाइगरे नमसामि ॥१॥ पुष्करवरद्वीप में, अर्धद्वीप, घातकीखंड, और जम्बूद्वीप में विद्यमान भरत, ऐरावत और महाविदेहरूप कर्मभूमियों में श्रुत धर्म की आदि करने वाले श्री तीर्थंकरों को नमस्कार करता हूं ॥१॥ व्याख्या-'मरहेरवयविदेहे' अर्थात् भरतक्षेत्र, ऐरावतक्षेत्र और महाविदेह क्षेत्र में यहां समाहारद्वन्द्व-समास करने और भीमसेन का भीम की तरह संक्षिप्त रूप करने से मरतंरावतविदेह' शब्द बना है । 'धम्मा' यानी श्रुत धर्म के, आइगरे अर्थात् सूत्र में आदि करने वाले तीर्थकर भगवान् को नमंसामि नमस्कार करता हूं। उक्त क्षेत्र कहाँ-कहाँ हैं ? इसे कहते हैं-पुक्खरवरबीवड्ढे =उसे पुष्करवर इसलिए कहा है कि वह पद्मकमल से भी श्रेष्ठ है। यह जम्बूढीप से तीसरा द्वीप है। उसके अंदर आधेभाग में मानुषोत्तर पर्वत है, इसलिए उसे पुष्करवरद्वीपार्ध कहा है, उसमें दो भरत, दो ऐरावत और दो महाविदेहक्षेत्र, यों छह क्षेत्र हैं। घायईखंडे अर्थात् धातकी नाम के वृक्षों का खण्ड । उस वन में घातकीवृक्षों का बाहुल्य होने से उसका नाम धातकीखंड है। उसमें दो भरत, दो ऐरावत, दो महाविदेह ऐसे छह क्षेत्र है तथा अबूबीवे=जम्बू नाम के वृक्षों की प्रधानता होने से इसका नाम जम्बूद्वीप है । एक भरत, एक ऐरावत और एक महाविदेह, ऐसे तीन क्षेत्र हैं। सभी मिला कर ६+६+३=१५ कर्मभूमियां हैं ; शेष अकर्मभूमि है। इसलिए कहा है- 'भरतेरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरुत्तरकुरुभ्यः (तत्त्वार्थसूत्र ३-१६) अर्थात् देवकुरु और उत्तरकुरु के सिवाय भरत, ऐरावत और महाविदेह-क्षेत्र कर्मभूमियां हैं । यहाँ पर पहले पुष्करवर बाद में घातकीक्षेत्र और उसके बाद जम्बूद्वीप इस तरह व्युत्क्रम से जो कहा है ; वह उन क्षेत्रों की विशालता व मुख्यता बताने की दृष्टि से कहा है । भगवद्वचनों को जो अपौरुषेय व अनादि मानते हैं ; उनके मत का खण्डन धम्माइगरे (धर्म के आदिकर्ता) शब्द से किया गया है, उस पर तर्क-वितर्क हम पहले कर चुके हैं, वहीं से समझ लेना। प्रश्न है-तीर्थकर धर्म की आदि करने वाले हैं ; यह कैसे कह सकते हैं ? क्योंकि 'तप्पुम्बिा अरहया' अर्थात् उस अतज्ञान के वचनपूर्वक ही अरिहंत होते हैं, इससे सिद्ध हुमा कि श्र तज्ञान अरिहंत भगवान के पहले से अनादि से था । इसका उत्तर देते हैं 'ऐसा नहीं है ; शुतज्ञान और तीर्थकर भगवान् कारणकार्यसम्बन्ध से बीज और अंकुर के समान हैं। जैसे बीज से अंकुर और अंकुर से बीज होता है ; वैसे ही भगवान् भी पहले तीसरे भव (जन्म) में अतधर्म के अभ्यास से तीर्थकरत्वप्राप्ति और तीर्थकरत्व से श्रुतधर्म के आदि करने वाले हैं। ऐसा कहने में कोई आपत्ति नहीं है। श्रुतज्ञानपूर्वक ही अर्हन्त होते हैं, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि मरुदेवी आदि को श्रुतधर्म के अभाव में भी केवलज्ञान हुमा था, ऐसा सुना जाता है। केवलज्ञान के शब्द-श्रवण करने से और श्रुतधर्म के अर्थ को जानने से उनको सर्वशत्व प्राप्त होता है। अब श्रुतधर्म की स्तुति कहते हैं कि तमतिमिरपडल- विसणस्स सुरगणनरिवमहिमस्त । सीमाधरस्सी , पप्कोरिम-मोहजालस्य ॥२॥
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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