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________________ ३६० योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश मोक्ष के लिए बोधिलाभ को प्रार्थना करना और उसके लिए 'समाहिवर' अर्थात् परम स्वस्थचित्तरूप भावसमाधि अर्थात आत्मा का समभाव, 'उत्तम' वह भी अनेक भेद वाले तारतम्यभाव से रहित सर्वोत्कृष्ट समाधि 'दितु' अर्थात् प्रदान करें ; ऐसी वीतराग प्रभ के प्रसन्न न होने पर भी भक्ति से प्रेरित हो कर ऐमी प्रार्थना करना युक्तियुक्त है। कहा भी है-क्षीणरागद्वेष वाले श्रीवीतराग समाधि अथवा बोधिवीज नहीं देते ; फिर भी भक्ति से इस तरह की प्रार्थना करना ; अमत्यामृषारूप व्यवहारभाषा है। जगत् में सभी व्यवहारों में व्यवहारभाषा बोली जाती है। इसलिए यह प्रार्थना भक्तिरूप होने से लाभदायक है । तथा--- चवेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा । सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धि मम विसंतु ॥७॥ चन्द्रों से भी अधिक निर्मल, सूर्यों से भी अधिक प्रकाशकर्ता स्वयम्भूरमण समुद्र से भी अधिक गम्भीर सिद्ध भगवान् मुझे सिद्धिपद दें ॥७॥ चदेसु में 'पञ्चम्यास्तृतीया' ।।३।१३६॥ इस सूत्र से प्राकृतभाषा में पंचमी विभक्ति के अर्थ में सप्तमः प्रयुक्त हुई है। इसलिए चंदेसु के स्थान पर सस्कृत में चन्द्रेभ्यः जानना। निम्मलयरा-- अतिनिर्मल अर्थात् सारे कर्ममल नाण हो जाने से अनेक चन्द्रों से भी अतिनिर्मल । कही 'चंदेह' ऐसा पाठा.तर भी है । 'आइच्चेसु अहियं पयासयरा' अर्थात अनेक सूर्यों के प्रकाश से भी अधिक प्रकाशकर्ता । सूर्य सीमित क्षेत्रों में प्रकाश करते हैं ; जबकि अरिहन्त केवलज्ञानरूपी सूर्य के प्रकाश से लोकालोक के सभी पदार्थों को प्रकाशित करते हैं। कहा भी है-चन्द्रमा, सूर्य और ग्रहों की प्रभा परिमितक्षेत्र में प्रकाश करती है ; किन्तु केवलज्ञान की प्रभा तो लोक-अलोक को सर्वथा प्रकाशित करती है। तथा 'सागरवरगंभोरा' अर्थात् परिपहों उपमों आदि से क्षन्ध न होने वाले, स्वयंभरमणसमुद्र के समान गम्भीर, सिवा अर्थात् कर्मरहित होने से कृतकृत्य हुए सिद्ध भगवान सिद्धि मम दिसंत' अर्थात् परमपद-मोक्ष मुझे दें। इस तरह चौबीस जिनेश्वर भगवन्तो की स्तुति करके सारे जगत में विद्यमान तीर्थकर-प्रतिमाओं को वंदन आदि करने के लिए, कायोत्सर्ग करने के इंतु 'सम्वलोए अरिहंत-चेइआणं करमि काउस्सग्ग' से ले कर अप्पाणं बोसिरामि तक का पाठ बोले, इसका अर्थ, अरिहंत चेइआणं और अन्नत्थसत्र मे पहले कह आए है। केवल 'सब्बलोए' शब्द का अर्थ नहीं कहा गया था। सम्वलोए का अर्थ है- ऊर्वलोक, अधोलोक और तिर्यक्-लोक । इन तीनों लोकों में से अधोलोक में चमरेन्द्र आदि के भवन हैं, तिर्यक्लोक में द्वीप, पर्वत, और ज्योतिष्क विमान हैं और ऊर्ध्वलोक में सौधर्म देवलोक आदि के विमान है, जहाँ शाश्वत जिनप्रतिमाएं है। प्रत्येक मन्दिर में मूल प्रतिमा समाधि का कारणरूप होने से, सर्वप्रथम मूलनायक की स्तुति करके, तत्पश्चात् सभी अरिहन्तों के गुण एक सरीखे होने से. समन लोक के समस्त तीर्थकरों की सर्वप्रतिमाओं का ग्रहण करके काउस्सग्ग करना । उसके बाद 'नमो मरिहताण' कह कर सर्वतीर्थकरों की साधारण स्तुति बोलना। क्योंकि काउस्सग्ग किसी और का किया जाय और स्तुति किसी अन्य की बोली जाय तो अतिप्रसग दोष होता है; जो उचित नहीं माना जाता । इसलिए सभी तीर्थकर भगवन्तों को साधारण (Common) स्तुति करनी चाहिए।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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