SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 372
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५६ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश का इससे उपकार भी होता है । अर्थात् लोक-प्रकाशक के कारण वे लोकोपकारी होने से तथा लोक उनके द्वारा उपकृत होने से वे स्तुति करने योग्य हैं। अनुपकारी की स्तुति कोई नहीं करता, इसलिए उनका उपकारित्व बताने के लिए कहते हैं - 'धम्मतित्थयरे' अर्थात् 'धर्मप्रधान तीर्थ को करने ( रचने) वाले ।' इसमें धर्म शब्द की व्याख्या पहले कर चुके हैं। तीर्थ उसे कहते हैं, जिसके द्वारा तरा जाय । अतः धर्म की प्रधानता वाला जो तीर्थ होता है. वह धर्मतीथं धर्ममय या धर्मरूप तीथं कहलाता है । जहाँ नदियाँ इकट्ठी होती हैं, वह द्रव्यतीथं कहलाता है, ऐसे स्थान का, तथा शाक्य आदि द्वारा स्थापित अधर्मप्रधान तीर्थं का निराकरण करने के लिए यहाँ 'धर्म' शब्द का प्रयोग किया है । अर्थात् धर्म ही संसारसमुद्र से तरने के लिए पवित्र तीर्थ है। ऐसे धर्मतीर्थ के स्थापक घर्मतीर्थकर कहलाते हैं । ऐसे अरिहन्त भगवान् देवों, मनुष्यों और असुरों से भरी हुई पपंदा (धर्म सभा) पेठ कर अपनी-अपनी भाषा में सभी समझ सकें, इस प्रकार की पैंतीस गुणो से युक्त वाणी से धर्म समझा कर धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं । इस धर्मतीर्थंकर' विशेषण से अरिहन्तों का पूजातिशय और वचनानिणय प्रगट किया गया है । अब उनका अपायापगमातिशय बताते हैं— जिणे' अर्थात् रागद्वेप आदि आभ्यंतर शत्रुओं को जीतने वाले की स्तुति करूंगा । उस स्तुति का रूप प्रगट करते हुए कहते हैं उसममजिअ च वदे सभवमभिणंदणं च सुमई च । पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं यदे || २ || सुविहि च पुष्कदंतं, सीअल सिज्जस- वासुपुज्जं च । विमलमगतं च जिणं, धम्मं संति च वंदामि |३|| कुंषु अरं च महिल वंदे मुणिसुब्वयं नमिजिणं च । वंदामि रिट्ठनम पासं तह वद्धमाणं च ॥ ४ ॥ श्री ऋषभदेव और अजितनाथ जिन को वन्दन पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभस्वामी को मैं वन्दन शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ अनंननाथ हूं ॥४॥ कुंथुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतस्वामी और नमिजिन को ने वन्दन करता हूं और अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ तथा वर्धमान महावीर स्वामी को मैं वन्दना करता हूं ॥ ५ ॥ ! करता हूँ तथा संभवनाथ, अभिनंदनस्वामी, करता हूँ ॥ 7 ॥ सुविधिनाथ अथवा पुष्पदंत, धर्मनाथ और शान्तिजिन को मैं वंदन करता उपर्युक्त तीनों गाथाओं का अर्थ एक साथ कह कर अब उमी अर्थ को विभागपूर्वक यानी सामान्य और विशेषरूप से बहते है, जो तीर्थंकर भगवान् में घटित हो सकता है । उसमें ( १ ) उसम= ऋषभ का सामान्य अर्थ है - जो परमपद-मोक्ष को प्राप्त करता है; वह ऋषभ है । ऋपभशब्द का प्राकृत भाषा में 'उद् ऋत्वादौ ||८।१।१३१।। मूत्र मे उसही रूप बनता है। ऋषभ का दूसरा रूप वृषभ भी मिलता है । उसका अर्थ है— वर्षतीति वृषभ: अर्थात् जो दुःखरूपी अग्नि से जन्नते हुए जगत् को शान्त करने के हेतु उपदेशरूपी वर्षा करता है; वह वृषभ है। वृषभे वा वा ||११|१३३ ॥ मिद्ध हैम-सूत्र से वृको उ करने से उसही रूप होता है, उसी का यह उसम रूप है । विशेष अर्थ यों है- भगवान् की जंघा पर वृषभ का लांछन (चिह्न) होने से और माता मरुदेवी ने स्वप्न में सर्वप्रथम वृषभ देखा था, इसलिए भगवान् का नाम वृषभ अथवा ऋषभ रखा गया था । (२) अजितनाथ - परिपह आदि से नहीं जीता जा सका, इससे वह अजित है, यह सामान्य अर्थ है । विशेष अर्थ इस प्रकार है- जब भगवान् गर्भ में थे, तब उनकी माताजी राजा के साथ चौपड़ (पासा) खेल रही थी। राजा से नहीं जीतने के कारण
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy