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________________ चतुर्विशतिस्तव (लोगस्स) सूत्रपाठ और उस पर विवेचन ३५५ है और अन्त में जो पाठ है, वह "अभी काउसग्ग करता हूँ।' इस प्रकार क्रिया की समाप्ति का काल है। इन दोनों में कथंचित् एकरूपता होने से वर्तमान में उसका प्रारंभ बताने के लिए काउस्सग्ग करता हं: ऐसा कहा है यहां सवाल उठता है कि 'क्या काउस्सग्ग में शरीर का सर्वथा (सब प्रकार से) त्याग किया जाता है ? इसका उत्तर यह है-ऐसी बात नहीं है । पहले अन्नत्य सूत्र में बताए गये श्वासोच्छ्वास, खांसी आदि कारणों (आगारों) के सिवाय अन्य काया के व्यापारों का त्याग करता हूँ; यह बताने के लिए अन्नत्यमससिएणं आदि सूत्र बोल कर उसी तरह काउस्सग्ग करना। काउस्सग्ग बाठ श्वासोच्छवास का ही होता है तथा उसमें नवकारमंत्र ही गिनना चाहिए, ऐसा एकान्त नियम नहीं है ; अपितु यह लक्ष्यरूप है । चैत्य-वंदन करने वाला अकेला ही हो तो वह काउस्सग्ग के अन्त में 'नमो अरिहंताणं' कह कर काउस्सग्ग पूर्ण करके जिन तीर्थंकरप्रभु के सम्मुख उसने चैत्यवंदन किया है, उनकी स्तुति बोले । यदि चंत्यवंदन करने वाले बहुत मे लोग हों तो एक व्यक्ति काउस्सग्ग पार कर स्तुति बोले, शेष व्यक्ति काउस्सग्ग (ध्यान) में स्थिर रहें और स्तुति पूर्ण होने पर सभी 'नमो अरिहंनाणं' कह कर काउस्सग्ग पूर्ण करें। उसके बाद इस अवसर्पिणीकाल के भरतक्षेत्र में चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करे। चूकि ये चौबोसों तीर्थकर एक ही क्षेत्र में और वर्तमान अवसर्पिणीरूपी एक काल में हुए हैं। अतः आसन्न (निकट) उपकारी होने से उनकी स्तुति करना परम आवश्यक है। इस दृष्टि से उनकी स्तुति (चतुर्विशति-स्तव) करने के लिए 'लोगस्स' का पाठ कहते हैंलोगस्ससूत्र अर्थसहित - "लोगस्स उज्जोयगरे, धम्मतित्पयरे जिणे । अरिहते कित्तइस्सं, बउवीसपि केवली ॥१॥ लोक के उद्योत कर्ता, धर्मतीर्थ के संस्थापक, रागद्वेष आदि शत्रुओं के विजेता केवलज्ञानी चौबीस श्रीअरिहन्तों (तीर्थकरों) की स्तुति करूंगा ।।१।। इस गाथा में 'अग्हिंत' शब्द विशेष्य है। इसकी व्याख्या नमोत्थणं सूत्र में कहे गये अर्थ के अनुसार समझ लेना। उन चौबीस अरिहन्तों का 'कित्तइस्स' में कीर्तन करूंगा । यानी नामोच्चारणपूर्वक स्तुति करूंगा। राजा आदि अवस्थाओं में वे द्रव्य-अरिहंत कहलाते हैं, लेकिन यहां पर भाव-अरिहन्त की स्तुति करनी है, इसलिए जिन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ हो, ऐसे भाव-अरिहन्तों की स्तुति करूंगा, ऐसा कह कर तीर्थकरों का ज्ञानातिशय प्रगट किया गया है। उनकी संख्या बताने के लिए 'चवीसपि' -चौबीस और अपि शब्द के प्रयोग से चौबीस के अलावा और भी जो अरिहन्त तीर्थकर हैं, उनकी भी स्तुति करूंगा। वे अरिहन्त कैसे हैं ? इसे बताते हैं-'लोगस्स उज्जोयगरें' अर्थात् धर्मास्तिकाय आदि पांच अस्तिकायरूप लोक को केवलज्ञान से प्रकाशित-उद्योतित करने वाले हैं। यहाँ शंका होती है कि 'केवलज्ञानी कहने से ही लोक-प्रकाशकत्व का समावेश हो जाता है, फिर 'लोक का उद्योत करने वाले, इस प्रकार अलग से कहने की क्या आवश्यकता थी? इसके उत्तर में कहते हैं-'तुम्हारा कथन सत्य है', फिर भी विज्ञानाद्वैतवादी ऐसा मानते हैं कि-'जगत् ज्ञानरूप है। ज्ञान के बिना और कोई भी तत्त्व सत्य नहीं है। जो दिखता है, वह सब प्रान्तिरूप है।' यहाँ इसका खण्डन करते हुए कहते हैं - प्रकाशक और प्रकाश्य दोनों अलग-अलग हैं। यानी जगत् प्रकाश्य है और ज्ञान प्रकाशक है। इस तरह प्रकाश करने वाला और प्रकाशित की जाने वाली वस्तु दोनों पृथक हैं । इसे बताने के लिए ही 'लोक को प्रकाशित करने वाले' ऐसा कहा है। और लोक के उद्योतकर्ता की स्तुति करने वाले भक्तजन
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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