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________________ ३५४ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश करता है, तो उसके भावों में वृद्धि होती है । इस कारण अधिक फलप्राप्ति के लिए काउस्सग्ग द्वारा वह पूजा-सत्कार की प्रार्थना करता है। इस दृष्टि से यह निष्फल नहीं है । अतः साधु-श्रावक को इसका काउस्सग्ग करने में दोष नहीं है। तथा 'सम्माणवत्तियाए'=सम्मान के लिए काउल्सग्ग किया जाता है। स्तुति-स्तवन आदि करना सम्मान कहलाता है। अन्य आचार्य मानसिक प्रीति को सन्मान कहते हैं । यह वंदन-पूजन-सत्कार-सम्मान किसलिए किया जाता है ? इसे बताते हैं 'बोहिलामवत्तियाए अर्थात् अरिहन्त भगवान् द्वारा कथित धर्म की प्राप्तिरूप बोधिलाभ के लिए काउस्सग्ग करता है । यह बोधिलाभ भी किसलिए? इसे कहते हैं-निरुवसग्गवत्तिमाए अर्थात् जन्मादि-उपसर्ग से रहित मोक्ष की प्राप्ति से लिए बोधि का लाभ हो । यहाँ शंका होती है कि 'साधु और श्रावक को तो बोधिलाभ पहले से प्राप्त होता ही है ; फिर उसकी प्रार्थना किसलिए ? और बोधिलाभ का फल मोक्ष है ; जो (मोक्ष) उससे होने ही वाला है ; फिर उसकी प्रार्थना किसलिए की जाय ? इसके उत्तर में कहते हैं किसी भयंकर कर्मोदय के कारण प्राप्त हुई बोधि का नाश भी हो सकता है; इमलिए उसका नाश न हो, इस हेतु से बोधिलाभ की प्रार्थना करना लाभदायक है और जन्मान्तर में मोक्षप्राप्ति हो, इसके लिए भी प्रार्थना करना हितकारी है। और इसके लिए काउस्सग्ग करना उचित है । इस प्रकार कायोत्सर्ग करने पर भी उसके साथ श्रद्धा आदि गुणों की वृद्धि न हो तो ईष्टकार्य की सिद्धि नहीं हो सकती। इसीलिए कहते हैं- 'सखाए, मेहाए. धिइए. धारणाए, अणुपेहाए, वढमाजीए ठामि काउस्सग्गं" अर्थात् श्रद्धा से, मेधा से, धृति से, धारणा से, अनुप्रेक्षा से, इन सबकी वृद्धि के लिए कायोत्सर्ग करता हूँ। क्रमशः विश्लेषण इस प्रकार है-सद्धाए=श्रद्धा से । अर्थात् मिथ्यात्व-मोहनीयकर्म के क्षयोपशम आदि से आत्मा में प्रगट होने वाली और जल को निमंन करने वाले जलकान्त मणि के समान चित्त को निर्मल करने वाली श्रद्धा से या श्रद्धा के हेतु से काउस्सग्ग करता हूं। जबरन अथवा अन्य कारणों से नहीं करता; परन्तु मेहाए-कुशल बुद्धि से । मेधा का अर्थ है - उत्तमशास्त्र समझने में कुशल, पापशास्त्रों को छोड़ने वाली और ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्रगट हुई बुद्धि-दूसरों को समझाने की शक्ति । उस मेधा-बुद्धिपूर्वक काउस्सग्ग करता हूं; न कि जड़ता से अथवा मर्यादापूर्वक न कि मर्यादारहित और धिइए=धृति से । अर्थात् मन की समाधिरूप धीरता से काउस्सग्ग करता हूं; न कि रागद्वेषादि से व्याकुल बन कर तथा धारणाएअर्थात् श्री अरिहंत भ. के गुणों को विस्मरण किये बिना धारणापूर्वक (गुणस्मरणपूर्वक) करता हूं; न कि सूने मन से तथा 'अणुप्पेहाए' अर्थात् अरिहन्त भगवान के गुणों का बार-बार चिन्तन करते हुए करता हूं, न कि अनुप्रेक्षा से रहित । तथा बढमाणीए-अर्थात् इस प्रकार की वृद्धि के लिए काउस्सग्ग करता हूं। यहां श्रद्धा आदि पांचों परस्पर सम्बन्धित हो कर लाभदायक हैं। श्रद्धा हो तो मेधा होती है, मेधा हो तो धीरता होती है, धीरता से धारणा और धारणा से अनुप्रेक्षा होती है ; इस तरह क्रमश. वृद्धि होती है तथा ठामि काउस्सग्गं' अर्थात् काउस्सग्ग करता हूं। यहाँ फिर प्रश्न होता है कि-'सूत्र के प्रारंभ में 'फरेमिकाउस्सग्गं' कहा था, तो फिर 'ठामि काउस्सगं' कहने की क्या आवश्यकता थी? इसका उत्तर देते हैं-'आपका कहना सत्य है, परन्तु शब्दशास्त्र के न्याय से जो निकट (आसन्न) भविष्य में करना हो, उसके लिए 'ममी करता हूँ। इस प्रकार का वर्तमानकाल का प्रयोग किया जाता है । 'सस्सामीप्ये सव्वद्' ।।५।४१॥ सिढहमशब्दानुशासन के इस सूत्र के अनुसार वर्तमानकाल समीप में हो तो वह वर्तमानकाल का रूप गिना जाता है। इस न्याय से प्रारम्भ में 'करेमि काउसगं' कहा गया है। ऐसा कह कर पहले वहाँ 'भंते ! आज्ञा दीजिए, अब कायोत्सर्ग करता हूँ'; इस प्रकार काउस्सग्ग करने की आज्ञा मांगी गई है। वह बाजारूप क्रियाकाल
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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