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________________ तीनों काल में होने वाले अरिहन्तों को वन्दन करने की विधि ३५३ सूत्र बोला जाय तो कोई दोष नहीं है। प्रणिपातदडकसूत्र के बाद अतीत, अनागत और वर्तमान जिनेश्वर भगवान् को वंदन करने के लिए कितने ही लोग निम्नोक्न पाठ भी बोलते हैं जे अ अहया सिद्धा, जे अ भविस्संति जागए काले । संपइ अ बट्टमाणा, सम्वे तिविहेण वदामि ॥१॥ 'अर्थात् जो भूतकाल में सिद्ध हो गये हैं, जो भविष्यकाल में होने वाले हैं और वर्तमानकाल में जो विचरण करते हैं, उन सभी अरिहन्त भगवन्तों को मन, वचन और काया से वन्दन करता हूं।' इसके बाद जिनप्रतिमा के सम्मुख खड़े हो कर वंदन करने के लिए जिनमुद्रा से 'अरिहंत चेइयागं' आदि सूत्र बोलना चाहिए। उन भाव-अरिहन्तों की प्रतिमारूप चत्य को अरिहंत-चत्य समझना। चत्य का अर्थ प्रतिमा है । चित्त का अर्थ है-- अन्तःकरण । चित्त के भाव को अथवा चित्त के कार्य को चैत्य कहते हैं। सिद्धहमशब्दानुशासन के अनुसार वर्णाद् दृढ़ादित्वात ट्यणि ॥७१॥५६॥ सूत्र से चित्त शब्द के ट्यण प्रत्यय लगने से चैत्य शब्द बना है । बहुवचन मे चैत्यानि (चेइयाई) होता है। श्रीअरिहंतभगवान् की प्रतिमाएं चित्त में उत्तम समाधिभाव उत्पन्न करती हैं, इसलिए इन्हें 'चैत्य कहा गया है। अरिहंत चेइआणं करेमि काउस्सग्गं अर्थात उन अरिहंत के चैत्यों को वंदन करने के लिए काउस्सग्ग करता हूँ। अब कारस्सा शब्द का रहस्यार्य प्रगट करते है--जब तक शरीर से काउस्सग्ग करता हूं, तब तक काया से निश्चेष्ट हो कर जिन मुद्रा की आकृति का वचन से, मौनपूर्वक और मन से चिन्तन करता हूं। सूत्र के अर्थ का आलंबन रूप ध्यान करता हूं। और इससे भिन्न क्रियाओं का मैं त्याग करता हूं।" यह काउस्सग्ग किसलिए किया जाता है ? इसे बताते हैं-वंदणवत्तियाए-वंदन-प्रत्ययार्थ अर्थात् मन, वचन और काया की प्रशस्तप्रवृत्तिरूप वदन के लिए । 'काउस्सग्ग द्वारा वन्दन हो । स्पष्टार्थ हुमा --वन्दन करने की भावना से काउस्सग करता हूं, ताकि मुझे वन्दन का लाभ मिले । तथा 'पुअणवत्तियाए गन्धवास पूष्प आदि से अर्चना करना पूजा है ; उस पूजा के निमित्त से काउस्मग्ग करता हूं। तथा सक्कारबत्तियाए अर्थात् श्रेष्ठ वस्त्र, आभूषण आदि से अर्चना करना सत्कार कहलाता है। तथारूप सत्कार के लिए काउस्सग्ग करता हूं। यहाँ शंका होती है कि मुनि के लिए तो द्रव्यपूजा का अधिकार नहीं है। और यह गन्धवास, वस्त्र, आभूषण आदि द्रव्यपूजा है। फिर वे इस प्रकार की द्रव्यपूजा कैसे कर सकते हैं ? और श्रावक तो विविध द्रव्यों से पूजन-सत्कार करते ही हैं, तो फिर काउस्सग्गपाठ से पूजन-सत्कार की प्रार्थना करना, उनके लिए निष्फल है। तब फिर वह क्यों की जाय ? इसका उत्तर देते हैं - 'साधु लिए स्वयं द्रव्यपूजा करना निपिद्ध है, परन्तु दूसरे के द्वारा कराने अथवा अनुमोदन करने का निषेध नहीं है। उसका उपदेश देने एवं दूसरे के द्वारा श्री जिनेश्वर भगवान् की की हुई पूजा या सत्कार-(आंगी) के दर्शन करने से व हर्ष से अनुमोदना होती है ; इसका भी निषेध नहीं है। कहा है कि सुबह अपहररिसिणा कारवणं पि अ अणुठ्ठियमिमस्स । वायगगंषेसु तहा भागया सणा चेव ॥१॥ "महाव्रतधारी वजस्वामी ने द्रव्यस्तव कराने का कार्य स्वयं ने किया है तथा पू० वाचकवर्य श्रीउमास्वातिजी महाराज के ग्रन्थों में इस विषय पर देशना भी की गई है।" इस तरह साधु को द्रव्यस्तव करने का तथा अनुमोदना का अधिकार है; परन्तु स्वयं को करने का निषेध है। तथा श्रावक के लिए संसारबन्धन तोड़ने हेतु इस प्रकार की द्रव्यपूजा करना उचित है। श्रावक जब स्वयं पूजा-सत्कार
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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