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________________ तीर्थकर भगवान् की शक द्वारा की गई स्तुति की व्याख्या ३४५ सिंह विशेष बलवान है. जब कि कमल सामान्य है । अतः उनके मत से उपमा का अक्रम है, फिर भी वह दोषरूप नहीं है. क्योंकि वे पाहते हैं कि 'व्याख्या में क्रम न हो तो व्याख्या ही असत् होती है ।' यह बात युक्तियुक्त नहीं है । वस्तुत , सामान्य हो या विशिष्ट, समस्त गुण आत्मा में परस्पर सापेक्ष रहते हैं । इस लिए उन गुणों या गुणी भगवान की स्तुति क्रम से या व्युत्क्रम से किसी भी तरह से की जाय ; उसमें कोई दोष नहीं लगता । इस प्रकार पुरिसत्तमाणं' आदि चार पदों से श्रीअरिहन्त परमात्मा की स्तुति का विशेष हेतु कहा । इस तरह यह तीसरी संपदा का नाम 'स्तोतव्य विशेषहेतुसंपदा है। वे ही स्तुति करने योग्य श्रीवीतराग परमात्मा सामान्य रूप से इस संसार में किस तरह उपयोगी हैं ? इसे बताने के लिए अब पांच पदों द्वारा चौथी संपदा का वर्णन करते हैं:-"लोगुत्तमाण, लोगनाहाणं लोगहियाणं, लोगपईवाणं, लोगपज्जोमगराणं।" जो शब्द समूह का वाचक होता है, व्याकरणशास्त्रानुसार वह शब्द अनेक अवयवों (अंशों या विभागों) का भी वाचक होता है । लोक शब्द तत्वत: धर्मास्तिकायादि आदि आंच अस्तिकायों के समूह वाले चौदह राजू लोक का वाचक है । और उसके विपरीत जहाँ धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का अभाव हो, केवल आकाश ही हो, उसे अलोक कहते हैं। फिर भी यहाँ लोक शब्द से सर्वभव्यजीवरून लोक समझना चाहिए । यहाँ पर भगवान् को 'लोकोत्तम' कहा है । समानजातीयों में उत्तमता ही वास्तविक होती है, निम्न-जातीयों से उच्चजातीय में उत्तमता होने में कोई खास विशंपता नहीं होती। यों तो अभव्य की अपेक्षा सभी भव्यजीव उत्तम हैं ही, इस अपेक्षा से भगवान् की उत्तमता बताने में कोई विशेषता नहीं है। इस लिए वे सजातीय भव्यजीवों में उत्तम हैं; ऐसा कथन यहाँ अभीष्ट है। क्योंकि समस्त भव्यजीवों में सकल कल्याण के कारणभूत भव्यत्व नाम के भाव केवल भगवान् में ही रहते हैं । ऐसे लोक में उत्तम भगवान को नमस्कार हो। लोगनाहाणं अर्थात लोक के नाथ । योगक्षेम करने वाला नाथ होता है। अप्राप्त वस्तु को प्राप्त कराना योग है और प्राप्त वस्तु की रक्षा करना क्षेम है । इस दृष्टि से भगवान् लोक में धर्मबीज की स्थापना द्वारा अप्राप्त धर्म को प्राप्त कराते हैं, और धर्म की रागादि उपद्रवों से रक्षा करते-कराते हैं; इसलिए वे भव्यजीवलोक के नाथ हैं । तथा भगवान् को समस्त भव्यजीवरूपी लोक की अपेक्षा से यहाँ लोकनाथ नहीं कहा गया है; क्योंकि जो जाति (जन्मनः) भव्य हैं. उनके योग-क्षेमकर्ता भगवान् नहीं हो सकते, यदि ऐसा होता तो समग्र जीवों का मोक्ष हो जाता । इसलिए यहाँ भगवान् उन भव्यजीवों के ही योगक्षेमकर्ता हो सकते हैं, जो मोक्ष के निकट हैं। ऐसे भव्यजीवों में भगवान् धर्मबीज की स्थापना करके, धर्माकुर का प्रादुर्भाव और उसका पोषण करने से योग करते हैं एवं रागद्वेषादि आन्तरिक शत्रुओं के उपद्रव से उनका रक्षण करके क्षेम करते हैं । अर्थात् उन विशिष्ट भव्यजीवरूप लोक के नाथ को नमस्कार हो।' लोगहियाणं-अर्थात् लोक के हित करने वाले को नमस्कार हो। यहाँ लोक शब्द मे चौदह राजू लोक में एकेन्द्रियजीव से ले कर पंचेन्द्रिय जीव तक सभी व्यवहारराशिगत जीवरूप लोक समझना । चूकि 'भगवान् सम्यग्दर्शन आदि मोक्षमार्ग का उपदेश दे कर सभी जीवों को दुःख में पड़ने से बचाते हैं ; इसलिए वे लोक-हितैषी हैं। लोगपईवाणं- अर्थात् लोक-संसार में दीपक के समान प्रकाश करने वाले भगवान् को नमस्कार हो । यहाँ लोकशब्द से विशिष्ट संज्ञी पंचेन्द्रियजीवरूप लोक समझना चाहिए, क्योंकि भगवान् विशिष्ट संजीजीवों को अपने उपदेशरूपी ज्ञानकिरणों से मिथ्यात्व-अज्ञानरूपी
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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