SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश अन्धकार मिटा कर ज्ञेयमाव का यथायोग्य प्रकाश करते हैं, इस कारण संज्ञीलोक के प्रकाशक होने से वे प्रदीपरूप है । जैस दीपक अन्धे मनुष्य को प्रकाश नहीं दे सकता, वैसे ही भगवान् भी ऐसे महामिथ्यात्व रूप घोर अन्धकार में मग्न संज्ञी जीवों को प्रतिबोध नहीं दे सकते । इसलिए भगवान् को विशिष्ट संज्ञी जीवरूप लोक में प्रदीप के समान कहा है। तथा लोगपज्जोगगराणं अर्थात लोक में सूर्य के समान प्रद्योत करने वाले भगवान् को नमस्कार हो । यहाँ लोकशब्द से विशिष्ट चौदह पूर्व के ज्ञानवाले ज्ञानीपुरुष ही समझना चाहिए ; क्योंकि उनमें ही वास्तविक प्रद्योत हो सकता है । और प्रकाश करने योग्य सात अथवा नो जीवादि तत्त्वों को वे ही यथार्थरूप से जान सकते हैं। पूर्वधर ही विशिष्ट योग्यतासम्पन्न होते हैं । परन्तु तत्त्वों को प्रकाशित करने मे सभी पूर्वधर एक सरीखे नहीं होते। क्योकि पूर्वधर भी योग्यता में परस्पर तारतम्ययुक्त-षट्स्थान-न्यूनाधिक होते हैं। प्रद्योत का अर्थ है --विशिष्ट प्रकार से नयनिक्षेपादि से सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान के अनुभव का प्रकाश । ऐसी योग्यता विशिष्ट चतुर्दश-पूर्वधारी में ही होती है । अतः यहाँ विशिष्ट चतुर्दश पूर्वधररूपी लोक में प्रभु सूर्य के समान हैं। जंगे सूर्य से सूर्यविकासी कमल खिलते हैं, वैसे ही भगवत्सूर्य के निमित्त से विशिष्ट पूर्वधरों को जीवादि तत्त्वों का प्रकाश हो जाता है । इस दृष्टि से भगवान लोकप्रद्योतकर हैं । इस प्रकार लोकोत्तम आदि पांच प्रकार से भगवान् परोपकारी है। इसलिए स्तोतव्यसंपदा की सामान्य उपयोग के नाम से चौथी पंचपदी सम्पदा बताई। अव विशिष्ट उपयोग संपदा बताने की दृष्टि से हेतुसपदा नाम की पांचवीं संपदा बताते है . 'बमयवयाणं, चक्खुक्याणं, मग्गदयाणं, सरणवयाणं, बोहिदयाणं । इसमें प्रथम अभयबयाणं' का अर्थ है-अभय देने वाले भगवान को नमस्कार हो। भय मुख्यतया सात प्रकार का होता है (१) इहलोकभय (२) परलोक-भय, (३) आदान-भय, (४) अकस्माद्भय, (५) आजीविकाभय, (६) मरणभय, और (७) अपयशभय । भयों का प्रतिपक्षी अभय है। जिसमें भय का अभाव होता है । अर्थात् विशिष्ट आत्म स्वास्थ्य के लिए सम्पूर्ण कल्याणकारी धर्म की भूमिका में कारणभूत पदार्थ अभय कहलाता है। कोई उसे धैर्य भी कहते हैं । इस प्रकार के अभय को देने वाले श्री तीर्थकर भगवान् ही हैं, क्योंकि वे अपने गुणों के प्रकर्षयोग से अचिन्त्यशक्तिसम्पन्न होते हैं ; एव एकान्त परोपकारपरायण होने से भगवान् अभयदाता= भयरहितकर्ता भी है । तथा चक्खुदयाणचक्षु देने वाले को नमस्कार । भगवान् तत्त्ववोध के कारणरूप विशिष्ट आत्मधर्मरूप चक्षु के दाता है। दूसर लोग इसे श्रद्धा कहते हैं । जैसे चक्षु के बिना व्यक्ति दूसरे को देख नहीं सकता, वैम ही श्रद्धा-रहित व्यक्ति आत्मवस्तुतत्त्व के दर्शन करने में अयोग्य होता है । यानी तत्त्वदर्शन नहीं कर सकता। मार्गानुसारी श्रद्धा के बिना सुख प्राप्त नहीं कर सकता है। कल्याणचक्षु (श्रद्धा) होने पर ही यथार्थ वस्तुतत्त्व का ज्ञान व दर्शन होता है । इस कारण धर्मरूपी कल्पवृक्ष के लिए अमोघबीजरूप श्रद्धा भगवान् से प्राप्त होती है। अतः भगवान चक्ष को देने वाले हैं। 'मग्गल्याण'= अर्थात् मोक्षमार्ग देने वाले को नमस्कार हो । यहाँ मार्गदाता का अर्थ है - - सर्प की बांबी की तरह सीधी विशिष्ट गुणस्थान-श्रेणी को प्राप्त कराने वाले ; स्वरसवाही यानी आस्मस्वरूप का अनुभव कराने वाले, कर्मक्षयोपशम का स्वरूप बताने वाले । जिस पर चित्त का अवक्रगमन हो, जिसमें मोक्ष के अनुकूल चित्त-प्रवृत्ति हो, उसे मार्ग कहते हैं । मोक्षमार्ग के बिना चित्त की प्रवृत्ति शुद्ध या अनुकूल नहीं होती। सुख भी मोक्षमार्ग पर चलने से होता है । मोक्षमार्ग के अभाव में यथायोग्य गुणस्थान की प्राप्ति नहीं हो सकती ; क्योंकि मार्ग की विषमता से चित्त की स्खलना होती है और इससे गुण की प्राप्ति में वह चित्त विघ्नरूप होता है । ऐसा सरल सत्यमार्ग भगवान् से ही प्राप्त होता है, इसलिए भगवान् मार्गदाता है।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy