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________________ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश अरिहन्त भगवान् भी कर्मरूपी शत्रुओं के निवारण के लिए शर, कर्मों को उच्छेदन करने में कर, पराजित करने वाले क्रोध आदि को सहन नहीं करने वाले, रागादि से परामत न होने वाले महापराक्रमी, वीर्यवान, और तपश्चरण में वीरता के लिए प्रम प्रसिद्ध हैं ही, तथा वे परिपहों की अवजा करते हैं, उपसर्गों से डरते नहीं, इन्द्रियों के पोषण की चिन्ता नहीं करते, संयममार्ग पर चलने में उन्हें खेद नहीं होता, वे सदा शुभध्यान में निश्चल रहते हैं। अत: इन गुणों के कारण अरिहन्त भगवान् पुरुपो में सिः के समान हैं। यह कथन असत्य भी नहीं है: क्योंकि सिंह के समान इत्यादि उपमा देने से उनके असाधारण गुण प्रतीत होते हैं । भगवान को सजातीय को उपमा देनी चाहिए, विजातीय की उपमा से तो 'विरुद्धोपमायोग तदधर्मापत्त्या तववस्तुत्वम्' अर्थात् विरुद्ध (विजातीय) उपमा के योग से उपमेय में उपम' का धर्म आ जाने से उपमेय की वास्तविकता नहीं रहती।' इस न्याय से उपमेय में उपमान के मान धर्म आजाने से भगवान् में पुरुषत्व आदि का अभाव हो जायगा;' चारुशिष्यो के इस मत का खण्डन करते हुए कहते हैं.पुरिसवरपुंडरोआणं' अर्थात् पुरुष होने पर भो श्रेष्ठ पुंडरीक के समान अरिहंत को नमस्कार हो । संसार रूपी जल से निलिप्त इत्यादि, धर्मों के कारण वे श्रेष्ठ पुंडरीक कमल के समान हैं। जैसे पुंडरीक - कमल कीचड़ मे उत्पन्न होता है, जल में बढ़ता है, फिर भी दोनों का त्याग कर दोनो से ऊपर रहता है। वह स्वाभाविक रूप में सुन्दर होता है, त्रिलोक की लक्ष्मी का निवास स्थान है, चक्षु आदि के लिए आनन्द का घर है उसके उत्तम गुणों के योग से विशिष्ट तिर्यंच, मनुष्य और देव भी कमल का मेवन करते हैं ; तथा कमल सुख का हेतुभन है, वैसे ही अरिहन्त परमात्मा भी कर्मरूपी कीचड़ में जन्म लेते हैं, दिव्यभोगरूपी जल से उनकी वृद्धि होती है, फिर भी वे कर्मों और भोगों का त्याग कर उनसे निर्लेप रहते हैं, अपने अतिशयों से वे सुन्दर हैं और गुणरूपी सम्पत्तियों के निवास-स्थान हैं ; परमानन्द के हेतुरूप है ; केवलज्ञानादि गुणों के कारण तिर्यंच, मनुष्य और देव भी उनकी सेवा करते हैं, और इससे वे मोक्षसुख के कारण बनते हैं। इन कारणों से अरिहन्त भगवान् पुंडरीककमल के समान हैं। इस तरह भिन्नजातीय कमल की उपमा देने पर भी अर्थ में कोई विरोध नही आता। सुचारु के शिष्यों ने विजातीय की उपमा देने से, जो दोप बताया है, वह दोष यहाँ सम्भव नहीं है। यदि विजातीय उपमा के देने से उपमेय में उस उपमा के अतिरिक्त अन्य धर्म भी मा जाते हैं, वैमे ही सिंह आदि की सजातीय उपमा से उस सिंह आदि का पशुत्व आदि धर्म आ जाता है। किन्तु सजातीय उपमा से वैसा नही बनता ; वैसे ही विजातीय उपमा से भी वह दोष नहीं लगता। बृहस्पति के शिष्य ऐसा मानते हैं कि ययोत्तरक्रम से गुणों का वर्णन करना चाहिए। अर्थात् प्रथम सामान्य गुणों का, बाद में उससे विशेष गुणों का और उसके बाद उससे भी विशिष्ट गुणों का यथाक्रम से वर्णन करना चाहिए। यदि इस क्रमानुसार व्याख्या नहीं की जाती है तो वह पदार्थ क्रमरहित हो जाता है और फिर गुण तो क्रमशः ही बढ़ते हैं। इसी के समर्थन में वे कहते हैं- 'अक्रमबदसत्' अर्थात् 'जिसका विकास क्रमश. नहीं होता, वह वस्तु असत् (मिथ्या) है।' श्री अरिहत परमात्मा के गुणों का विकास भी क्रमशः हुमा है । इसे बताने के लिए प्रथम सामान्य उपमा, बाद में विशिष्ट उपमा देनी चाहिए। उनके इस मत का खण्डन करने के लिए कहते हैं-'पुरिसबरगंबहत्यीणं' अर्थात् श्री अरिहन्त भगवान् पुरुष होने पर भी श्रेष्ठ गन्धहस्ती के समान हैं। जैसे गन्धहस्ती को गन्धमात्र से उस प्रदेश में घूमने वाले क्षद्र हाथी भाग जाते हैं, वैसे ही अरिहन्त परमात्मा के प्रभाव से, परराज्य का आक्रमण, दुष्काल, महामारी आदि उपद्रवरूपी क्षुद्र हाथी उनके बिहाररूपी पवन की गन्ध से भाग जाते हैं। इस कारण से भगवान श्रेष्ठगन्धहस्ती के समान हैं। यहाँ पहले सिंह की, बाद में कमल की और उसके बाद गन्धहस्ती की उपमा दी है । इसमें गन्धहस्ती से भी
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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