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________________ नमोत्युणं (शक्रस्तव) पर व्याख्या है, ऐसा नही, बल्कि चार घातिकर्मों का सम्पूर्ण क्षय होते ही केवलज्ञान होजाना है। केवली में चार अघातिकर्म शेप रहते हैं, वे उसके केवलज्ञान में बाधक नहीं होते। और केवलज्ञान तो ज्ञानावरणीय आदि ४ घातिकमों के क्षय होने से प्रगट होता है। अहंत केवलज्ञानी ही तीर्थ की स्थापना कर सकते हैं । मुक्त केवलियों अथवा एक साथ आठों कोंको क्षय कर के मुक्ति प्राप्त करने वालों में तीथकरत्व नहीं हो सकता। इसीलिए कहा--'तीर्थ की स्थापना करने वाले तीर्थंकर को नमस्कार हो।' कई लोग कहते हैं"इन तीर्थंकरों को भी सदाशिव की कृपा से बोध-ज्ञान होता है, इस विषय में उनके ग्रन्थ का प्रमाण है'महेशानुग्रहात बोध-नियमाविति' अर्थात् 'महेश की कृपा से बोध-ज्ञान और (गौच संतोष, तप, स्वाध्याय ध्यान होते हैं । परन्तु उनका यह कथन यथार्थ नहीं है, इसीलिए कहा -सयंसंबुदाणं अर्थात् वे दूसरे के उपदेश बिना भव्यत्वादि सामग्री के परिपक्व हो जाने से स्वयं (अपने आप) ही सम्बुद्ध होते हैंयथार्थ तत्त्वस्वरूप को जानते हैं । अतः स्वय बोध प्राप्त किया है, उन्हें नमस्कार हो । यद्यपि दूसरे पूर्वभवों में बाकायादा गुरु-महाराज के उपदेश से वे बोध प्राप्त करते हैं, फिर भी तीर्थकर-भव में तो वे दूसरों के उपदेश से निरपेक्ष ही होते हैं । वे स्वयं ही बोध .. प्राप्त करते हैं । यद्यपि तीर्थकर के भव मे लोकान्तिक देव 'मयवं तित्यं पवत्तेह' भगवन् ! आप तीर्थ स्थापन) में प्रवत्त हों; ऐसे वचन से भगवान दीक्षा अंगीकार करते हैं। तथापि जैसे कालज्ञापक-वंतालिक के वचन से राजा प्रवृत्ति या प्रयाण करता है, वैसे ही देवों की विनति से तीर्थकर स्वतः दीक्षा अगीकार करते हैं ; उनके उपदेश से नहीं । स्तोतव्य की सामान्य सम्पदा बता कर, अब विशेष सम्पदा बताते हैं 'पुरिसुत्तमाणं, पुरिससीहाणं रिसवरपुंडरीयाणं पुरिसवरगंधहत्यी'-तात्पर्य यह है, पुरियानी शरीर में शयन करता है, अतः इसे पुरुष कहते हैं। विशिष्ट पुण्यकर्म के उदय से उत्तम आकृति वाले शरीर में निवास करने वाले, उनमें भी उत्तम जोव होने से स्वाभाविक तथा भव्यत्वादि भावों में श्रेष्ठ होने से 'पुरुषोत्तम' कहलाते हैं। वे पुरुषोत्तम इस प्रकार से हैं-अपने संसार के अन्त तक परोपकार करने के आदी होते हैं, अपने सांसारिक सुखों का स्वार्थ उनके लिए गौण होता है. सर्वत्र उचित क्रिया करते हैं. किसी भी समय में दीनता नहीं लाते ; जिसमें सफलता मिले, उसी कार्य को आरम्भ करते हैं, हढ़ता से विचार करते हैं ; वे कृतज्ञता के स्वामी, क्लेशरहित चित्त वाले होते हैं । देव-गुरु के प्रति अत्यन्त आदर रखते हैं। उनका आशय गम्भीर होता है । खान से निकला हुमा मलिन और अनघड़ श्रेष्ठ जाति का रत्न भी काच से उत्तम होता है। किन्तु जब उसे शान पर चढ़ा कर घड़ दिया जाता है तो वह और भी स्वच्छ हो जाता है, तब तो काच से उसकी तुलना ही नहीं हो सकती। वैसे ही अरिहन्त परमात्मा के साथ किसी की तुलना नहीं हो सकती। वे सभी से बढ़कर उत्तम होते हैं । ऐसा कह कर बौद्ध जो मानते हैं कि नास्ति इह कश्चिवमाननं सत्त्वः' अर्थात् इस संसार में कोई भी प्राणी अपात्र नहीं है । जीव मात्र सर्वगुणों का भाजन होता है; इसलिए सभी जीव बुद्ध हो सकते हैं ; इस बात का खण्डन किया गया है। क्योंकि सभी जीव कदापि अरिहन्त नहीं हो सकते ; भव्य जीव ही अरिहन्त हो सकते हैं । बाह्य अर्थ की सत्ता को सत्य मानने वाले व उपमा को असत्य मानने वाले संस्कृताचार्य के शिष्य यों कहते हैं कि 'जो स्तुत्य हैं, उन्हें किसी प्रकार की उपमा नहीं दी जा सकती, क्योंकि होनाधिकाम्यामुपमा मषा यानी स्तुत्य को हीन या अधिक से उपमा देना, असत्य है । इस मत का खण्डन करने के लिए कहा हैपुरिससोहाणं पुरुषों में सिंह के समान; मुख्यतया शौर्य आदि गुणों के कारण अरिहन्त भगवान को पुरुष होते हुए भी सिंह के समान कहा है । जैसे सिंह शौर्य, क्रूरता, वीरता, धैर्य आदि गुण वाला होता है, वैसे
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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