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________________ ३३२ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश प्रभावना करना है, दीन-दुःखी जीवों पर अत्यन्त करुणा करता है, उसे 'महाधावक' कहने में कोई दोष नहीं है । सात क्षेत्रों में धन लगाना चाहिए, इसका व्यतिरेक द्वारा समर्थन करते हैं यः सद् बाह्यमनित्यं च, क्षेत्रेषु न धनं वपेत् ।। कथं वराकश्चारित्रं दुश्चरं स समाचरेत् । १२०॥ ____अर्थ-जो पुरुष अपने पास होते हुए भी बाह्य और अनित्य धन को योग्य क्षेत्रों में नहीं लगाता. (बोता); वह बेचारा दुष्कर चारित्र का आराधन कैसे कर सकता है ? व्याख्या-यहां 'सत्' शब्द धन का विशेषण क्यों बनाया गया है ? इसका उत्तर देते हैं कि सत् का अर्थ है विद्यमान । विद्यमान धन का दान देना संभव है ; इसलिए सत् शब्द लगाया है । शरीर आभ्यन्तर वस्तु है ; उसकी अपेक्षा से धन बाह्यवस्तु माना जाता है। आन्तरिक वस्तु का त्याग करना अशक्य है ; इसलिए बाह्य विशेषण लगाया गया है। वाह्यवस्तु सदा म्थायी टिकने वाली नहीं है। इसलिए अनित्य' विशेषण लगाया गया है । धन को चोर, जल, अग्नि, कुटुम्वी, राजा आदि हरण कर लेते हैं । इसलिए 'अनित्य विशेपण लगाया गया है। इसे प्रयत्नपूर्वक रखने पर भी पुण्य-क्षय होते ही इसका अवश्य नाश हो जाता है। हमारे गुरुदेव भी कहते हैं--'धन को चोर लूट ले जाते हैं, कुटुम्बो लोग लड़ कर हिस्सा ले जाते हैं. राजा जबरन अथवा कर लगा कर ले जाता है, अग्नि जला डालती है, जलप्रवाह बहा ले जाता है अथवा व्यसनासक्ति के कारण मनुष्य का धन पीछे के द्वार से चला जाता है। भूमि में गाड़ कर भलीभांति सुरक्षित रखा हो, फिर भी व्यन्तरदेव हरण कर लेते हैं अथवा मरते समय मानव सब कुछ छोड़ कर परलोक चला जाता है। इसलिए अनित्य धन का थोड़ा-सा भी अंश किसी न किसी उत्तम क्षेत्र में लगाना चाहिए । तेल बहुत हो, परन्तु उसे पर्वत पर नहीं लगाया जाता ; वैसे ही धन बहुत हो तो ऐसे-वैसे को दे कर खत्म नहीं किया जाता। इसलिए सात क्षेत्रों में उसे बोना (लगाना) चाहिए । इसीलिए कहा है कि 'सात क्षेत्रों में अपना धनरूपी बीज बोने से सो, हजार, लाख अथवा करोड़ गुना हो जाता है। पास में सामग्री होते हुए भी जो अपना धन या साधन क्षेत्र में नहीं लगाता ; वह बेचारा सत्त्वहीन है। जिस महासत्त्व ने दुश्चारित्र का आचरण किया है, वह कैसे सप्तक्षेत्रों में घनदान कर सकेगा? एकमात्र धन में लुब्ध वना हुआ सत्त्वशृन्य व्यक्ति सर्वसंग-त्यागरूप चारित्र का पालन कसे कर सकेगा? और चारित्र की आराधना किए बिना सद्गति कैसे प्राप्त कर सकेगा? वास्तव में सर्वविरति की प्राप्तिरूप कलशारोपण फल वाला श्रावकधर्मरूप महल है। अव महाश्रावक की दिनचर्या का वर्णन करते हैं ब्राह्म मुहूर्त उत्तिष्ठेत् परमेष्ठित ति पठन् । किंधर्मा किंकुलश्चास्मि किंव्रतोऽस्मीति च स्मरन्॥१२१॥ अर्थ-ब्राह्ममुहूर्त में निद्रा का परित्याग करके महाश्रावक परमेष्ठि-पद की स्तुति करता हुआ उठे। उसके बाद यह स्मरण करे कि 'मेरा धर्म क्या है ? मैंने किस कुल में जन्म लिया है ? और मेरे कौन से व्रत हैं ? व्याख्या-रात्रि के कुल पन्द्रह मुहूर्त होते हैं । उसमें चौदहवां मुहूर्त ब्राह्म कहलाता है, उसमें निद्रा का त्याग कर, परममंगल के लिए, दूमरे को सुनाई न दे, इस तरह अरिहंत सिद्ध आदि पंचपरमेष्ठी पद
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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