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________________ सातवें श्राविकाक्षेत्र की महिमा और महाश्रावकपद का रहस्य नास्तिक, कृतघ्न, स्वामीद्रोही, देव-गुरु के भी वंचक इत्यादि पुरुष बहुत दोषयुक्त पाये जाते हैं ; उनको देख कर महापुरुषों की अवज्ञा करना योग्य नहीं है। इसी प्रकार वैसी स्त्रियों को देख कर सम्पूर्ण स्त्रीजाति को बदनाम करना उचित नहीं हैं । कितनी ही स्त्रियां बहुत ही दोप वाली होती है और कितनी ही स्त्रियां बहुत गुण वाली होती हैं । श्री तीर्थकर परमात्मा की माता स्त्री ही होती है। फिर भी उनकी गुण-गरिमा के कारण इन्द्र भी उनकी स्तुति करते हैं, और मुनिवर्य भी उनकी प्रशंसा करते हैं । लोक में भी कहा है कि 'जो युवती किसी उत्तम गर्भ को धारण करती है, वह तीन जगत् में गुरुस्थान प्राप्त करती है। इसी कारण विद्वान लोगों ने वर्गर अतिशयोक्ति के मातृजाति की महिमा का गुणगान किया है। कितनी ही स्त्रियां, अपने शील के प्रभाव से आग को जल के समान शीतल, सर्प को रस्सी के समान, नदी को स्थल के समान और विष को अमृत के समान कर देती हैं । चातुर्वर्ण्य-चतुर्विध संघ में चौथा अंग गृहस्थ-श्राविकाओं का बताया है। स्वयं तीर्थंकर भगवान ने सुलसा आदि श्राविकाओं के गुणों की प्रशंसा की है। इन्द्रों ने भी देवलोक में बार-बार उनके चरित्रों को अतिसम्मानपूर्वक कहा है और प्रबल मिथ्यादृष्टि देवों ने भी सम्यक्त्व आदि से उन्हें विचलित करने का प्रयत्न किया है। फिर भी वे विचलित नही हुई। उनमें से शास्त्रों में सुना है, कोई उसी भव में मोक्ष जाने वाली है, कोई दो या तीन भव करके मोक्ष में जाती है। इसलिए उसके प्रति माता के समान बहन के समान या अपनी पुत्री-समान वात्सल्य रखना चाहिए । यही व्यवहार युक्तियुक्त है । पांचवें आरे के अन्त में एक साधु, एक साध्वी, एक श्रावक और एक श्राविका रहेंगी। वह क्रमशः दुष्प्रसहसूरि, यक्षिणी साध्वी, नागिल श्रावक और सत्यश्री श्राविका होगी । अतः उस श्राविका को पापमयी वनिता के तुल्य बता कर क्यों बदनाम किया जाय? । इसी कारण श्राविका (गृहस्थसन्नारी) का दूर से त्याग करना योग्य नहीं है, परन्तु उसके प्रति वात्सल्यभाव रखना चाहिए । अधिक क्या कहें ? सिर्फ सात क्षेत्रों में ही धन लगाने से महाश्रावक नहीं कहलाता; परन्तु निर्धन, अन्धा, बहरा, लंगड़ा, रोगी, दीन, दुःखी आदि के लिए जो भी अनुकपापूर्वक धन व्यय करता है ; भक्तिपूर्वक नहीं ; वही महाधावक है । मात क्षेत्रों में तो भक्तिपूर्वक यथोचित दान देने का कहा है। अतिदीन-दुःखीजनों के लिए तो पात्र-अपात्र का तथा कल्पनीय-अकल्पनीय का विचार किये बिना, केवल करुणा से ही अपना धन लगाना योग्य माना गया है । दीक्षा के समय में श्री तीर्थंकर भगवन्तों ने भी पात्र-अपात्र की अपेक्षा रखे बिना अभेदभाव से केवल करुणापरायण हो कर ही सांवत्सरिक दान दिया था। इस कारण जो सात क्षेत्रों में भक्ति से और दीन-दुःखियों के लिए अतिकरुणा से अपना धन लगाता है, उसे ही महामावक कहना चाहिए। यहां शंका होती है कि ऐसे व्यक्ति को केवल श्रावक न कहकर 'महाश्रावक' क्यों कहा गया? उसके पूर्व 'महा' विशेषण लगाने का क्या प्रयोजन है ? इसका समाधान करते हैं कि जो अविरति सम्यग्दृष्टि है, या एकाध अणुव्रत का धारक है अथवा जिनवचन का श्रोता है, उसे व्युत्पत्तिलभ्य अषं से श्रावक कहा जाता है। इसीलिए कहा गया है कि "जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया है, जो हमेशा साधु के मुख से उत्तम श्रावकधर्म की समाचारी सुनता है, वह यथार्थरूप में भावक है।" तथा प्रभु-कथित पदार्थों पर चिन्तन करके जो स्वश्रद्धा को स्थिर करता है : प्रतिदिन सुपात्ररूपी क्षेत्र में धनरूपी बीज बोता लगाता) है ; उत्तम साधुओं की सेवा करके पापकर्म क्षय करता है ; उसे आज भी हम अवश्य भावक कह सकते हैं। इस निरुक्त-व्याख्या से सामान्य श्रावकत्व तो प्रसिद्ध है ही, किन्तु जो श्रावक समग्र व्रतों का निरतिचार पालन करता है ; पूर्वोक्त सात क्षेत्रों में अपना धन लगाता है, जैनधर्म की
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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