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________________ महाश्रावक की दिनचर्या का वर्णन का 'नमो अरिहंताण' इत्यादि नवकार-मन्त्र के पाठ से अत्यन्त आदरपूर्वक मन ही मन स्मरण करे । अतः कहा है कि 'शय्या में पड़े-पड़े भी या बैठे-बैठे भी पंचपरमेष्ठि-नमस्कार-मन्त्र का मन में चिन्तन करना चाहिए । क्योंकि इस प्रकार मन में स्मरण करने से मन्त्र का अविनय नहीं होता। यह मन्त्र अत्यन्त प्रभावशाली और सर्वोत्तम है । पलंग पर अथवा शय्या में बैठे बैठे इस मंत्र का उच्चारण करना अविनय है । अन्य किसी आचार्य का मत है कि स्पष्ट उच्चारण करने में भी कोई हर्ज नहीं है। ऐसी कोई अवस्था नहीं है, जिसमें पंच नमस्कार रूप मन्त्र गिनने का अधिकार न हो । केवल नमस्कार-मंत्र वोलना, इतना ही नहीं, परन्तु मेरा कौन-सा धर्म है ? मैंने किस कुल में जन्म लिया है ? और मैंने कौन-कौन मे व्रत अंगीकार सभी भावों को स्मरण करते हुए जाग्रत होना चाहिए । उपलक्षण से -- द्रव्य मे मेरे गुरु कौन हैं ? क्षेत्र रो. मैं किस गांव या नगर का निवासी हूं ? काल से, यह प्रभातकाल है या सांयकाल है ? भाव से, जैनधर्म, इक्ष्वाकुकुल. अणुव्रतादि व्रतस्मरण करता हुआ धर्म के विषय में विचार करे और उसके विपरीत-चिन्तन का त्याग करे। चिपुष्पामिष-स्तोत्रदेवमभ्यर्च्य वेश्मनि । प्रत्याख्यान यथाशक्ति कृत्वा देवगृहं व्रजेत् ॥१२२॥ अर्थ -उसके बाद स्नानादि से पवित्र हो कर अपने गृहमंदिर में भगवान को पुष्प, नैवेद्य एवं स्तोत्र आदि से पूजा करे, फिर अपनी शक्ति के अनुसार नौकारसी आदि का पच्चक्खान करके बड़े जिनमन्दिर में जाए। व्याख्या-शौच जाना, दतौन करके मुख शूद्धि करना, जीभ पर से मल उतारना, कूल्ला कर मुह धोना, स्नान आदि से शरीर को पवित्र करना ; यह पवित्र होने की बाह्यशुद्धि की बात शास्त्रकार नहीं कहते ; इसलिए यह लोकप्रसिद्ध मार्ग होने मे इसका अनुवादमात्र किया है। लोकसिद्ध बातों के उपदेश देने की आवश्यकता नहीं रहती। अप्राप्त पदार्थ बताने में ही शास्त्र की सफलता है। मलिन शरीर वाले को स्नान करना, भूखे को भोजन करना. इत्यादि कार्य बताने में शास्त्र की जरूरत नहीं होती। विश्व में धर्ममार्ग बताने में ही शास्त्र की उपयोगिता है । अप्राप्त दुर्लभ वस्तुएँ प्राप्त करने में और स्वाभाविक मोहान्धकार में जो ज्ञान-प्रकाश से वचित हैं, उन लोर्गों के लिए शास्त्र ही परमचा है। इस प्रकार आगे भी अप्राप्न विषय में उपदेश सफल है, ऐसा समझ लेना चाहिए और सावद्यकार्य में शास्त्रवचन अनुमोदनरूप वहीं हो सकते । अतः कहा भी है कि 'साद्य अर्थात् सपाप और पाप-रहित वचनों के अन्तर को जी नहीं जानता, उसे (शास्त्र के विषय में) बोलना भी योग्य नहीं है तो फिर उपदेश देने का अधिकार तो होता ही कहां से ? इसलिए शुचिन्व की बात यहीं छोड़ कर अब गृह मंदिररूप नंगलचत्य में अरिहन्त भगवान् की पूजा की बात पर आइए । यहाँ पूजा के भेद बताते हैं -पुष्प, नैवेद्य और स्तोत्र से पूजा करे । यहाँ 'पुष्प' कहने से समस्त सुगन्धित पदार्थ जानना। जैसे विलेपन, धूप, गंधवास और उपलक्षण से वस्त्र, आभूषण आदि भी समझ लेना चाहिए। आमिष अर्थात् नैवेद्य और पेय, जैसे पक्कान्न ; फल, अक्षत, दीपक, जल, घी से भरे हुए पात्र आदि रखे । स्तोत्र में शक्रस्तव (नमुत्युणं) आदि सद्भूतगुणों के कीर्तनरूप काव्य बोले । उसके बाद प्रत्याख्यान का उच्चारण करे। जैसे नमस्कारसहित अथवा नौकारसी पोरसी आदि तथा अद्वारूप गंटिसहियं आदि संकेत-प्रत्याख्यान यथाशक्ति करे। बाद में भक्ति-चैत्यरूप संघ के जिनेश्वर-मन्दिर में जाए। वहां स्नान, विलेपन व तिलक करे । ऋद्धिमान के लिए शस्त्र धारण करना, रथादि सवारी में बैठना इत्यादि स्वतःसिद्ध होने से उपदेश देने की जरूरत
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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