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________________ ३२६ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश से जबरन मुफ्त में या धोखा दे कर हर्गिज यह काम नहीं करवाना चाहिए। अपने पास धन-सम्पत्ति अच्छी हो तो भरत राजा आदि की तरह रत्नशिलाजटित, सुवर्णतलमय, मणियों के स्तंभी और सोपानों से सुशोभित, रत्नमय संकड़ों तोरणों से सुशोभित, विशाल मण्डप में पुतलिकायुक्त स्तम्भ इत्यादि उत्तम शिल्पकला से सुशोभित मन्दिर बनवाए, जिसमे कपूर, कस्तूरी, अगर आदि प्रज्वलित सुगन्धित धूप से उत्पन्न हुआ धूंआ आकाश को छूता हो, उसके कारण बादल की शका से आनन्दपूर्वक नृत्य करते हुए मोर आदि के मधुर शब्द सुने जाते हो, और जहाँ चारों तरफ मांगलिक वाद्यों के निनाद से गगनमण्डल गूंज उठता हो, देवदूष्य आदि विविध वस्त्रां का चदांवा बंधा हो और उसमें मोती लगे हों; तथा मोतियों से लटकते गुच्छों से शोभामय हो रहा हो । जहाँ देवसमूह ऊपर से नीचे आ रहे हों, और दर्शन कर के वापिस जा रहे हों। वे गात गात नृत्य करते, उछलते, सिंहनाद करते हों, ऐसा प्रभाव देख कर देवी द्वारा की हुई अनुमोदना से हर्षित जनसमुदाय जहाँ उमड़ रहा हो; विविध दृश्य, विचित्र चित्र जहाँ अनेक लोगों की चित्रलिखित से बना देत हों । चामर, छत्र, ध्वजा, आदि अलकारो में जो अलकृत हो और जिसके शिखर पर महाध्वजा फहरा रही हो । अनेक घुंघुरूओं वाली छोटी-छोटी पताका फहराने से उत्पन्न शब्दों से दिशाएँ शब्दायमान हो रही हों। ऐसे कौतुक से आकर्षित देवों, असुरों ओर अप्सराओं का झुंड प्रतिस्पर्धापूर्वक जहाँ सगीत गाता हो; गायकों के मधुर गीतो की ध्वनि ने जहां देव-गाधर्वो के तुम्बरु की आवाज को भी मात कर दी हो, और वहां कुलांगनाएँ निरन्तर एकत्रित हो कर ताल और लयपूर्वक रासलीला आदि नृत्य करती हो, अभिनय व हावभाव करती हों, जिन्हें देख कर भव्य लोग चमत्कृत होते हों । अभिनययुक्त नाटकों को देखने की इच्छा से आकर्षित करोड़ों रसिकजन जहां एकत्रित होते हो । ऐगा जिनमंदिर उच्च पर्वत के शिखर पर अथवा श्रीजिनेश्वरों का जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान, और निर्वाण हुआ हो, ऐसो कल्याणकभूमि में बनवाना चाहिए अथवा महाराजा सम्प्रति के समान प्रत्येक गाव, नगर एव मोहल्ले में उत्तम स्थान पर बनवाना चाहिए, यह महाश्रीमान् श्रावक का कर्तव्य है । परन्तु जिसके पास इतना वैभव नही हो, उसे आखिरकार तृणकुटीर के समान भी जिन मंदिर बनवाना चाहिए। कहा भी है- जो जिनेश्वर भगवान् का केवल घास की कुटिया सरीखा भी जिनमन्दिर बनवाता है, तथा भक्तिपूर्वक केवल एक फूल चढ़ाता है, उसका भी इतना पुण्य प्राप्त होता जिसका कोई नापतौल नही किया जा सकता, तब फिर जो व्यक्ति मजबूत पापाणशिलाओं से रचित बड़ा मंदिर तैयार कराता है, वह शुभभावनाशील पुरुष वास्तव मे महाभाग्यशाली है । राजा आदि कोई महासम्पन्न व्यक्ति जिनमन्दिर बनवाये तो उसके साथ उसके निर्वाह और भक्ति के लिए बहुत सा भडार, धन गाँव, शहर या गोकुल आदि का दान देना चाहिए । इस तरह जिनमंदिररूपी क्षेत्र में अपना घन लगाना चाहिए, तथा कोई मंदिर जीर्ण-शीर्ण हो गया हो तो उस का जीर्णोद्धार भी कराना चाहिए। नप्ट या भ्रष्ट भी हो तो उसका उद्धार कराना चाहिए । यहाँ शका करते हैं कि "निरवद्य = पापरहित जिनधर्म के आराधक चतुर श्रावक के लिए जिन मंदिर या जिनप्रतिमा बनवाना या जिनपूजा आदि करना उचित नहीं है; क्योंकि ऐसा करने में षड्जीवनिकाय के जीवों की विराधना होती है। जमीन खोदना, पत्थर फोड़ना, ईंटें बनाना, खड्डे भरना, ईंटे आदि इकट्ठी करना, जल से उन्हें गीली करना; इन सब कार्यों में पृथ्वीकाय, अपकाय, वनस्पति काय, एवं सकाय आदि जीवों की विराधना होगी । अतः जीवहिंसा किये बिना जिन-मंदिर बन नहीं सकता ! इसका उत्तर देते हैं- "जो श्रावक अपने लिए या कुटुम्ब के लिए आरम्भ - परिग्रह
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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