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________________ श्रावक के धन का सदुपयोग जिनप्रतिमा, जिनमन्दिर, जिनागम आदि में कैसे हो ? ३२७ में आसक्त बन कर धनोपार्जन करता है, उसका धनोपार्जन करना निष्फल न हो, इसलिए जिन मंदिर आदि बनवाने में धन का सदुपयोग करना कल्याण के लिए होता है। इसी के समर्थन मे कहते हैं - धर्म के लिए धन का उपार्जन करना युक्त नहीं है । इसी दृष्टि से कहा है- 'धर्म के लिए धन कमाने की इच्छा करने से बेहतर यही है कि उसकी इच्छा नही करे। क्योकि कीचड में पैर बिगाड़ कर फिर उस धोने की अपेक्षा पहले से कीचड़ का स्पर्श नही करना ही उत्तम है । दूसरी बात, जिनमंदिर आदि बनवाना बावडी कुएं, तालाब, आदि खुदवाने के समान अशुभकमं-बन्धन का कारण नहीं है, बल्कि वहाँ चतुविध श्रीसंघ का बारबार आगमन, धर्मोपदेश- श्रवण, व्रतपरिपालन आदि धर्मकार्य सम्पन्न होंगे, जो शुभ कर्म- पुण्यरूप या निर्जगरूप हैं। इस स्थान पर छह जीवनिकाय की विराधना होने पर भी यनना रखने वाले श्रावक के दया के परिणाम होने में सूक्ष्मजीवो का रक्षण होने से उसे विराधना सम्बन्धी पापबन्धन नहीं होता । कहा है कि 'शुद्ध अध्यवमाय वाले और सूत्र में कही हुई विधि के अनुमार धर्ममार्ग का आचरण करने वाले यतनावान् श्रावक द्वारा जीवविराधना हो तो भी वह कार्य निर्जग-रूप फल देने वाला होता है ।' समम्त गणिपिटक अर्थात् द्वादशांगी का सार जिन्होंने प्राप्त कर लिया है, उन निश्चयनयावलम्बी परमपियों का कथन है कि 'आत्मा के जैसे परिणाम होते हैं, तदनुसार ही फल मिलता है बाह्यक्रिया के अनुसार नहीं । इसका अर्थ यह हुआ कि जिनमंदिर-निर्माण आदि कार्यों के पीछे निश्चयनय की दृष्टि से हिंसा के परिणाम नहीं हैं, अपितु भक्ति के परिणाम हैं । श्रावक - प्रतिमा अंगी करने वाला महाश्रावव, जो अपने कुटुम्ब के लिए भी आरम्भ नही करता, वह भी यदि जिनमंदिर आदि बनाता है. तो उसको छह जीव -निकाय की विराधना से कम का बंध नहीं होता । और जो यह कहा जाता है कि जैसे शरीर आदि के कारणों से छह जीवनिकाय का वध होता है, वैसे ही उसे जिनमन्दिर निर्माण या जिन-पूजा में भी छह जीव-निकाय का वध होता है; ऐसा कथन अज्ञता का सूचक है। अधिक विस्तार से क्या लाभ ? (३) जिन - आगम तीसरा क्षेत्र जिन आगम है। इस क्षेत्र में भी श्रावक को धन लगाना चाहिए | क्योंकि मिथ्याशास्त्र से उत्पन्न गलत संस्काररूपी विष का नाश करने के लिए मन्त्र के समान; धर्म-अधर्म, कृत्य-अकृन्य, मक्ष्य - अभक्ष्य, पेय-अपेय, गम्य- अगम्य तत्त्व अतत्त्व आदि बातों में यो का विवेक कराने वाला, गाढ अज्ञानान्धकार में दीपक के समान, मंसारसमुद्र में डूबते हुए के लिए द्वीप समान, मरुभूमि में कल्पवृक्ष के समान जिनागम इस संसार में प्राप्त होना अतिदुर्लभ है। श्रीजिनेश्वर देव के स्वरूप, उनके सिद्धान्तों और उपदेशों का ज्ञान कराने वाला आगम ही है । स्तुति में भी ऐसा ही कहा है कि 'जिसको अपने सम्यक्त्व सामर्थ्य से आप जैसे वीतरागपुरुषों का परम आप्तभाव प्राप्त है, हम समझते हैं, ऐसा जो कुवासनारूप दोषों का नाश करने वाला आपका शासन है; आपके उस शासन को मेरा नमस्कार हो ।" जिनागम के प्रति प्रगाढ़ सम्मान रखने वाले व्यक्ति को देव, गुरु और धर्म आदि पर बहुमान होता है; इतना ही नहीं; बल्कि किसी समय केवलज्ञान से भी बढ़ कर जिनागम-प्रमाणरूप ज्ञान हो जाता है। उसके लिए शास्त्र में कहा है कि 'सामान्य श्रुतोपयोग के अनुसार श्रुतज्ञानी कदाचित् दोषयुक्त (अशुद्ध) आहार को भी निर्दोष (शुद्ध) मान कर ले आए, तो उसे केवलज्ञानी भी आहाररूप में ग्रहण कर लेते है, नहीं तो, श्रुतज्ञान अप्रमाण हो जाय । श्रीजिनागम का वचन भी भव्यजीवों का भव (संसार) नाश करने वाला है । इसलिए कहा है कि सुनते हैं, जिनागम का एक पद भी मोक्षपद देने में समर्थ है । केवल एक सामायिक पद मात्र से अनन्त जीव सिद्ध हुए हैं। यद्यपि रोगी को पथ्य आहार रुचिकर नहीं होता, वैसे ही मिथ्यादृष्टि को जिनवचन रुचिकर नहीं होता । फिर भी स्वर्ग या
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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