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________________ द्वादशवती श्रावक सात क्षेत्रों में धनव्यय करने पर महाश्रावक कहलाता है ३२५ (१) जिनप्रतिमा-विशिष्ट लक्षणों से युक्त, देखते ही आल्हाद प्राप्त हो, ऐसी वचरत्न, इन्द्रनीलरत्न, अंजनरत्न, चन्द्रकान्तर्माण, सूर्यकान्तमणि, रिप्टरत्न, कर्केतरत्न, प्रवालमणि, स्वर्ण, चांदी, चन्दन, उत्तम पाषाण, उत्तम मिट्टी आदि सार द्रव्यों से श्रीजिनप्रतिमा बनानी चाहिए । इसीलिए कहा है-'जो उत्तम मिट्टी, स्वच्छ पापाण, चांदी, लकडी, सुवर्ण, रत्न, मणि, चन्दन इत्यादि से अपनी हैसियत के अनुसार श्रीजिनश्वरदेव की सुन्दर प्रतिमा बनवाता है, वह मनुष्यत्व मे और देवत्व में महान सुख को प्राप्त करता है। तथा आल्हादकारी, सर्वलक्षणों से युक्त, समग्र अलंकारों से विभूषित श्रीजिनप्रतिमा के दर्शन करते ही मन में अतीव आनन्द प्राप्त होता है, इससे निर्जरा भी अधिक होती है। इस तरह शास्त्रोक्त विधि से बनाई हुई प्रतिमा को विधिपूर्वक प्रतिष्ठा करे, अष्टप्रकारी पूजा करे, संघयात्रा का महोत्सव करके विशिष्ट प्रकार के आभूषणों से विभूपिन करे, विविध वस्त्र अर्पण करे ; इस तरह जिनप्रतिमा में धनरूपी बीज बोये अर्थात् धन खर्च करें। अतः कहा है -- अतिसौरभपूर्ण सुगन्धितचूर्ण, पुष्प, अक्षत, धूप, ताजे घी के दीपक आदि विभिन्न प्रकार का नैवेद्य, स्वतः पके हुए फल और जलपूर्ण कलशादि पात्र श्रीजिनेश्वरदेव के आगे चढ़ा कर अष्टप्रकारी पूजा करने वाला गृहस्थ श्रावक भी कुछ ही समय में मोक्ष का-सा महासुख प्राप्त करता है । यहां प्रश्न करते है कि जिन-प्रतिमा राग-द्वेष-रहित होती है, उसकी पूजा करने मे जिन भगवान् को कुछ भी लाभ नहीं है। कोई उनकी कितनी भी अच्छी तरह पूजा करे, फिर भी वे न तो खुश होते हैं, न ही तृप्त होते हैं । अतृप्त या अतुष्ट देवता से कुछ भी फल नहीं मिल सकता।' इसका युक्तपूर्वक उत्तर देते हैं कि यह बात यथार्थ नहीं है। अतृप्त या अतुष्ट चिंतामणि रत्न आदि से भी फल प्राप्त होता है । श्री वीतराग-स्तोत्र में कहा है- 'जो प्रमन्न नहीं होता, उससे फल कैसे प्राप्त हो सकता है ?; यह कहना असंगत है। क्या जड़ चिन्तामणि रत्न आदि फल नहीं देता ? अर्थात् देता है । वैसे ही जिनमूर्ति भी फल देती है। तथा 'पूज्यों का कोई उपकार न होने पर भी पूजक के लिए वे उपकारी होते हैं । जैसे मन्त्र आदि का स्मरण करने से उसका न प फल तथा अग्नि आदि का सेवन करने से गर्मी आदि का फल प्राप्त होता है । इसो नरह जिन-प्रतिमा की सेवापूजा भी लाभ का कारण समझना चाहिए । यहाँ हमने स्वनिर्मित मूर्ति की विधि बनाई है। उसी तरह दूसरे के द्वारा निर्मित विम्वों की पूजा आदि करना चाहिए । नथा किसी ने नहीं बनवाई हो, ऐसी शाश्वत-प्रतिमा का भी पूजन-वन्दनादि यथाविधि यथायोग्य करना चाहिए। जिनप्रतिमा तीन प्रकार की होती है-(१) स्वयं भक्ति से बनाई हुई जिनप्रतिमा, दूसरों की भक्ति के लिए स्वयं द्वारा मदिर में स्थापित की हुई । जैसे कि आजकल कई श्रद्धालुभक्त बनवाते हैं । (२) मंगलमय चैत्य या गृहद्वार पर मंगल के लिए विम्ब या चित्र स्थापित किया जाता है । (३) शाश्वत चैत्य होते हैं कोई जिन्हें बनवाता नहीं है, परन्तु शाश्वतरूप में ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यक्लोक में शाश्वत प्रतिमा कई जगह विद्यमान होती हैं। तीन लोक में ऐसा कोई स्थान नहीं है कि जो जिन-प्रतिमा से पवित्र न बना हो। श्रीजिनप्रतिमाओं में वीतरागभाव का आरोपण करके ही उनकी पूजाविधि करना उचित है। (२) जिनमंदिर-दूसरा क्षेत्र जिन-भवन है, जहाँ अपना धन (बोना) लगाना चाहिए। हड्डी, कोयले आदि अमंगल शल्यों से रहित भूमि में स्वाभाविक रूप से प्राप्त पत्थर, लकड़ी, आदि पदार्थ ग्रहण करके शास्त्रविधि के अनुसार बढ़ई, सलावट, मिस्त्री. शिल्पकार आदि को अधिक वेतन दे कर षट्जीवनिकाय के जीवों की यतनापूर्वक रक्षा करते हुए जिनमदिर बनवाना चाहिए। किन्तु उपयुक्त व्यक्तियों
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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