SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 340
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२४ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश दान देने के समय का उल्लंघन करना, (समय टाल देना) मत्सर रखना, अपनी वस्तु को पराई कहना ; चौथे शिक्षावत के ये आँच अतिचार हैं। व्याख्या साधु को देने योग्य वस्तु पर सचित्त-सजीव पृथ्वीकाय, पानी का बर्तन, जलते चूल्हे के अंगारे या अनाज आदि वस्तुएं उन्हें न देने की बुद्धि से स्थापन करना । ओही बुद्धि वाला ऐसा समझता है कि सचित्त के साथ रखी हुई कोई भी वस्तु माधु नहीं लेते; ऐसा जान कर तुच्छबुद्धि वाला धावक देने योग्य वस्तु को सचित्त पर रखे, या जमा दे। साधु नहीं ग्रहण कर सके ; ऐसा विचार करे, तब यह मुझे लाभ हुआ' यह प्रथम अतिचार है। तथा ऊपर कहे अनुसार साधुसाध्वियों को देने की इच्छा से देने योग्य वस्तु सूरण, कन्द, पत्ते, फूल, फल आदि सजीव पदार्थ ढक दे ; यह दूसरा अतिचार है । तथा साधु के भिक्षा के उचित समय बीत जाने के बाद या उसके पहले ही पोपध-ग्रन वाला भोजन करे, वह तीसरा अतिचार है, तथा मत्सर यानी ईर्ष्या व क्रोध करे अथवा साध द्वारः किमी कल्पनीय वस्तु की याचना करने पर क्रोध करे; आहार होने पर भी याचना करने पर नहीं दे। किसी सामान्य स्थिति वाले ने माधु को कोई चीज भिक्षा दी ; उसे देख कर ईर्ष्यावश यह कहते हुए दे कि उसने यह चीज दी है तो मैं उससे कम नहीं हूं। लो, यह ले जाओ। इस तरह दूसरे के प्रति मत्सर (ईर्षा) करके दे। यहां दूसरे की उन्नति या वैभव की ईर्ष्या करके देने से सहज श्रद्धावश दान न होने के कारण अनिचार है। अनेकार्थसंग्रह में मैंने कहा है-"दूसरे की सम्पत्ति या वैभव को देख कर उस पर क्रोध करना मत्सर है ।" यह चौथा अतिचार हुआ । साधु को आहार देने की इच्छा न हो तो ऐसा बहाना बना कर टरका देना कि "गुरुवर ! यह गुड़ आदि खाद्य पदार्थ तो दूसरे का है।" यह अन्यापदेश अतिचार कहलाता है । व्यपदेश का अर्थ है - बहाना बनाना । अनेकार्थसंग्रह में अपदेश-शब्द के तीन अर्थ बताये हैं-- कारण, बहाना और लक्ष्य । यहाँ बहाने अर्थ में अपदेश शब्द गृहीत है। यह पांचवां अतिचार हुआ। ये पांचों अतिचार अतिथिसंविभागवत के कहे हैं। ___ अनिचार की भावना इस तरह समझ लेना चाहिए भूल आदि से पूर्वोक दोषों का सेवन हुआ तो अतिचार जानना, अन्यथा व्रतभंग समझना। इस तरह सम्यक्त्वमूलक बारह व्रतों पर विवेचन किया और उसके बाद उनके अतिचारों का भी वर्णन कर दिया। अब उपर्युक्त व्रत की विशेषता बताते हुए श्रावक के महाश्रावकत्व का वर्णन प्रस्तुत करते हैं-- एवं व्रतस्थितो भक्तया सप्तक्षेत्यां धनं वपन् । वयया चातिदीनेषु महाधावक उच्यते । अर्थ- इस तरह बारह व्रतों में स्थिर हो कर सात क्षेत्रों में भक्तिपूर्वक तथा अतिदोनजनों में दयापूर्वक अपने धनरूपी बीज बोने वाला महाश्रावक कहलाता है। व्याख्या-इस प्रकार पहले कहे अनुसार सम्यक्त्वमूलक अतिचाररहित विशुद्ध बारह व्रतों में दत्तचित्त श्रावक, जिन-प्रतिमा जिनमदिर, जिन-आगम, साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकारूप सात क्षेत्रों में न्याय से उपार्जन किया हुआ धन लगाए । श्लोक में कहा है कि श्रावक को इन सात क्षेत्रों धनरूपी बीज बोना चाहिए। इसमें 'वपन' शब्द का प्रयोग करके यह सूचित किया है कि वपन उत्तमक्षेत्र में करना ही उचित है। अयोग्यक्षेत्र में वपन नहीं करना चाहिए। इसलिए 'सप्तमंत्र्यां' (सात खेतों में) कहा है तात्पर्य यह है कि अपने द्रव्य को योग्यतम पात्ररूपी सात क्षेत्रों में भक्तिपूर्वक यथायोग्य खर्च करना चाहिए।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy