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________________ योगशास्त्र: प्रथमप्रकाश जागृत हुई । उसने तत्काल अपने पुत्र को राज्याभिषिक्त करके राजपाट सौंप दिया और स्वयं विनयपूर्वक उद्यान में जा कर विनयधरसूरिजी के पास मुनि दीक्षा ले कर सर्वसाधविरतिरूप संयम अंगीकार किया। महाव्रतों और उत्तरगुणों को धारण कर राजर्षि एक गांव से दूसरे गांव समताभाव से एकाग्रचित्त हो कर विहार करते थे। हाथियों के यूथपति के पीछे-पीछे जैसे उमका समुदाय चलता है, वैसे ही राजर्षि के पीछे-पीछे गाढ़-अनुराग से प्रजामण्डल चलने लगा। उन कषायरहित, उदासीन, ममत्वरहित, निष्परिग्रह राजर्षि की प्रजा ने छह महीने तक सेवा की । अब किसी प्रकार भी वापस लौटने का उसका मन नहीं होता था। वे यथाविधि भिक्षा ग्रहण करते थे। भोजन समय पर न मिलने से तथा अपथ्य भोजन करने से अनेक व्याधियों ने उनके शरीर में डेरा जमा लिया। खुजली, सूजन, बुखार, श्वास, अरुचि, पेट में दर्द और आंखों में वेदना, इन सात प्रकार की व्याधियों की वेदना को सातसी वर्ष तक राजपि ने समतापूर्वक सहन किया । समग्र दुःस्सह परिषहों के सहन करने से तथा उनके निवारण का उपाय नहीं करने से उन्हें अनेक लब्धियां प्राप्त हो गई। उस समय हृदय में आश्चर्य होने से इन्द्रमहाराज ने देवों के सामने उस मुनि की प्रशंसा की-"जलते हुए घास के पुले के समान चक्रवर्ती-पन का दंभव छोड़ कर यह सनत्कुमार मुनि दुष्कर तप कर रहे हैं, तप के प्रभाव से उन्हें समस्त लब्धियां प्राप्त हई हैं। फिर भी वे अपने शरीर के प्रति निरपेक्ष हैं । यहां तक कि अपने रोगों की चिकित्सा भी नहीं करते।" इन्द्र के इस वचन पर विजय और वैजयन्त नामक देवों को विश्वास न होने से वे वैद्य का रूप बना कर मनत्कुमारमुनि के पास आये और कहने लगे-भाग्यशाली मुनिवर ! आप रोग से क्यों दुःखी होते हैं ? हम दोनों वैद्य हैं। हम सारे विश्व के रोगियों की चिकित्सा करते हैं, और आप रोगग्रस्त हैं तो हमे आज्ञा दीजिये न ! हम एक ही दिन में आपका राग मिटा देते हैं ।" यह सुन कर सनत्कुमारमुनि ने प्रत्युनर दिया-"चिकित्सको ! इस जीव को दो प्रकार के रोग होते हैं-एक तो द्रव्यरोग और दूसग भावरोग । क्रोध, मान, माया और लोभ आदि भावरोग हैं, जो शरीरधारी आत्माओं को होते हैं और हजारों जन्मों तक जीव के साथ चलते हैं और असीम दुःख देते हैं। अगर आप उन रोगों को मिटा सकते हों तो चिकित्सा कीजिए। विन्तु यदि केवल शरीर के द्रव्यरोग मिटाते हो तो ऐसे रोग मिटाने की शक्ति तो मेरे पास भी है।" यों कह कर उन्होंने मवाद से भरी अपनी सड़ी उंगली पर अपने कफ का लप किया। सिद्धरस का लेप करने ही जैसे तांबा चमकने लगता है, वैसे ही वह अंगुली कफ का लेप करते ही सोने-सी चमकने लगी। सोने की सलाई के समान अंगुली देख कर वे देव उनके चरणों में गिर पड़े, और कहने लगे'मुनिवर ! हम वे ही देव हैं, जो पहले आपका रूप देखने आये थे । इन्द्रमहाराज ने कहा था कि 'लब्धियां प्राप्त होने पर भी सनत्कुमार राजर्षि स्वेच्छा से व्याधि की पीड़ा सहन करते हुए अद्भुत तप कर रहे है। इसी कारण हम यहाँ आये हैं । हमने यहाँ आ कर आपकी प्रत्यक्ष परीक्षा की। उसमें आप उत्तीर्ण हुए।' यों कह कर वे दोनों देवता उन्हें नमस्कार करके अदृश्य हो गये। उनको प्राप्त कफलन्धि का तो एक उदाहरण हमने दिया है। उन्हें दूसरी अनेक लब्धियों प्राप्त थीं, परन्तु ग्रन्थ बढ़ जाने के डर से हम उनका वर्णन यहाँ नही करते । योग के प्रभाव से प्राप्त अन्य लब्धियां योग के प्रभाव से योगी पुरुप की विष्ठा भी रोग का नाश करने में समर्थ होती है, और उसमें कमल की-सी महक भी आती है। सभी देहधारियों का मल दो प्रकार का माना है। एक तो कान, नेत्र आदि से निकलने वाला, और दूसरा शरीर से निकलने वाला मल, मूत्र, पसीना आदि । योगियों के
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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