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________________ सनत्कुमार चक्रवर्ती को रूप पर गर्व और वैराग्य १७ वक्ष:स्थल है, सिंह- शिशु के उदर के समान इस की कमर है; अधिक क्या कहें, इसके पूर्ण शरीर की शोभा वर्णनातीत है । अहो ! चन्द्रमा की चांदनी के समान इसके लावण्य को नदी के प्रवाह में स्नान करके शरीर को स्वच्छ करने वाले हम नहीं जान सकते । इन्द्रमहाराज ने इसके रूप का जैसा वर्णन किया था, उससे भी अधिक उत्तम इसका रूप है। महापुरुप कभी असत्य नहीं बोलते । इतने में चक्रवर्ती बोला- 'विप्रवरो, आप दोनों यहाँ किस प्रयोजन से आये हैं ?' तब उन्होंने कहा 'हे नरसिंह ! इस चराचर जगत् में तुम्हारा रूप लोकोत्तर और आश्चर्यकारी है । दूर-दूर से तुम्हारे रूप का वर्णन सुन कर हमारे मन में इसे देखने का कुतूहल पैदा हुआ, इस कारण हम यहां आए हैं। आज तक हमने आपके अद्भुतरूप का वर्णन सुना था, आँखों से देखा नहीं था; परन्तु आज आपका रूप देख कर आंखों को तृप्ति हुई । तब मुस्करा कर सनत्कुमार ने कहा - 'विप्रवरो । तेल मालिश किये हुए शरीर की कान्ति तो कुछ भी नहीं है; कुछ देर ठहरो, बैठो और मेरा स्नान हो जाय तब तक जरा इन्तजार करो। देखो, जब मैं अनेक आश्चर्यकारी विविध वेष-भूषा और बहुमूल्य आभूषणों से सुसज्जित हो जाऊं, तब रत्नजटित सुवर्ण के समान मेरा रूप देखना यों कह कर सनत्कुमार स्नान करके वेष-भूपा एवं अलंकार आदि धारण करके आकाश में चन्द्र की तरह सुशोभित हो कर सभाजनों में सिंहासन पर बैठे । राजा ने उसी समय ब्राह्मणों को बुलाया । अतः राजा के सामने आ कर राजा के रूप को निहार कर दोनों विचार करने यह फीका रूप और लावण्य ! सचमुच संसार के मुझे देख कर आप हर्षित हुए थे; अब तब अमृतोपम वचनों से वे कहने लगे - 'हे महाइन्द्रमहाराज ने देवसभा में आपके रूप की हुआ । अतः हम मनुष्य का रूप बना कर 1 ! पहले लगे - 'कहां वह रूप एवं कान्ति और कहां अब का सभी पदार्थ क्षणिक हैं।' राजा ने पूछा - 'विप्रवरो आपका मुख विपाद से एकदम मलिन क्यों हो गया ?' भाग ! हम दोनों सौधर्म देवलोक के निवासी देव हैं प्रशंसा की थी ! उनके कथन पर हमें विश्वास नहीं आपका रूप देखने के लिए यहां आये हैं । इन्द्रमहाराज द्वारा वर्णित आपका रूप पहले हमने यथार्थ रूप । में देखा था; परन्तु वर्तमान में वह रूप वैसा नहीं रहा है। जैसे निश्वास से दर्पण मलिन हो जाता है, वैसे ही अब आपकी शरीर की कान्ति मलिन हो गई है। आपका रूप विकृत हो गया है; लावण्य फीका पड़ गया है । अब आपका शरीर अनेक रोगों से घिरा हुआ है।' इस तरह मच-सच बात बता कर वे दोनों देव अदृश्य हो गये । राजा ने कोहरे से झुलसे हुए वृक्ष के समान अपने निस्तेज शरीर को देखा । वह विचार करने लगा - सदैव रोग के घर के समान इस शरीर को धिक्कार है ! मन्दबुद्धि मूर्ख व्यर्थ ही इस पर ममता करते हैं । जैसे बड़े लक्कड़ को भयंकर घुन खाते हैं; प्रकार के भयंकर रोग इस शरीर को खा जाते हैं। बाहर से यह मगर बड़े के फल के समान अन्दर से तो कीड़ों से व्याप्त होता है पर शैवाल छा जाने से उसकी शोभा नष्ट हो जाती है, वैसे ही इरा इसकी रूपसंपत्ति को बर्बाद कर देना है। शरीर शिथिल हो जाता है, वैसे ही शरीर में उत्पन्न हुए विविध शरीर चाहे कितना ही अच्छा दीखे, । जैसे सुशोभित महासरोवर के पानी शरीर पर रोग छा जाने से वह मगर आशा शिथिल नहीं होती; रूप चला जाता है, परन्तु पापबुद्धि नहीं जाती; वृद्धावस्था बढ़ती जाती है, परन्तु ज्ञानवृद्धि नहीं होती । धिक्कार है, संसारी जीवों के ऐसे स्वरूप को ! घास की नोक पर पड़े ओसबिन्दु के समान इम संसार में रूप, लावण्य, कान्ति, शरीर, धन आदि सभी पदार्थ चंचल हैं। शरीर का स्वभाव आज था, वह कल नहीं रहता । अतः इस शरीर से तपस्या करके कर्मों की सकाम निर्जरा करना (क्षीण करना) यही महाफल प्राप्ति का कारण है । इस प्रकार वैराग्यभावना में डूबे हुए चक्रवर्ती को मुनिदीक्षा लेने की अभिलाषा
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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