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________________ योग के प्रभाव से प्राप्त होने वाली विविध लब्धियां योग का इतना जबर्दस्त प्रभाव होता है कि उनके पूर्वोक्त दोनों प्रकार के मल समस्त रोगियों के रोग को मिटा देते हैं । उक्त दोनों प्रकार के मलों में कस्तूरी की-सी मुगन्धि आती है । अमृतरस के सिंचन की तरख योगियों के शरीर का स्पर्श भी तत्क्षण सर्व रोगों का विनाश करने में समर्थ होता है। योगियों के शरीर के नख, बाल, दांत आदि विभिन्न अवयव भी औषधिमय बन जाते हैं। इसीलिये उन्हें भी सर्वोषधिलब्धि मान कहा है । इसी कारण तीर्थकरदेवों और योग धारण करने वाले चक्रवतियों के शरीर के हड्डी आदि सर्व अवयव देवलोक में सर्वत्र प्रतिष्ठित किये जाते हैं, पूजे जाते हैं। इसके अतिरिक्त योगियों के शरीर में और भी अनेक लब्धियां प्रगट हो जाती हैं । योगी के शरीर के स्पर्शमात्र से वर्षा का पानी, नदियों, सरोवरों या जलाशयों का पानी सभी रोगों को हरण करने वाला बन जाता है। उनके शरीर-स्पर्श से विषाक्त वायु निविष हो जाती है। मूच्छित प्राणी होश में आ जाता है। विष-मिश्रित अन्न योगी के मुख में प्रवेश करते ही निविष बन जाता है। महाविष या महाव्याधि से पीडित व्यक्ति भी उनके वचन-श्रवण-मात्र से या दर्शन-मात्र से भी विषरहित व रोगरहित हो जाता है। सर्वोषधि का यही रहस्य है। कहने का तात्पर्य यह है कि योगियों के कफ आदि महान् ऋद्धियों के समान हैं, अथवा ऋद्धियों के अलग-अलग भेद हैं। वैक्रियलब्धि भी अनेक प्रकार की है। उम के अणुत्व, महत्व, लघुत्व, गुरुत्व प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, अप्रतिघापातित्व, अन्तर्धान, कामरूपित्व आदि अनेक भेद हैं । अणुत्व का अर्थ है- अणु जितना शरीर बना कर बारीक से बारीक छेद में प्रवेश करने का सामर्थ्य । महत्व=मेरुपर्वत से भी महान् बनने का सामर्थ्य । लघुत्व वायु से भी हल्का शरीर बनाने की शक्ति । गुरुत्व= इन्द्रादि के लिए दुःसह तथा वज्र से भी अधिक वजनदार शरीर बनाने की शक्ति । प्राप्ति=धरती पर रहे हुए ही अंगुली के अग्रभाग से मेरुपर्वत के सिरे को और सूर्य को भी स्पर्श कर सकने का सामर्थ्य । प्राकाम्य=भूमि पर चलने की तरह पानी पर चलने की और पानी पर तैरने की तरह भूमि पर तैरने व डूबने की शक्ति । ईशित्व-तीन लोक की प्रभुता, तीर्थकर और इन्द्र की-सी ऋद्धि पाने की शक्ति और कामरूपित्व= एक साथ ही अनेक रूप धारण करने की शक्ति । ये सब क्रिय-लब्धियां भी महाऋद्धियों के अन्तर्गत हैं। इसके अतिरिक्त विद्या और बुद्धि से सम्बन्धित अनेक लब्धियाँ हैं, जो योगाभ्यास से प्राप्त होती हैं। जैसे तज्ञानावरणीय एवं वीर्यान्तराय कर्म के प्रकर्प क्षयोपशम से साधक को असाधारण महाप्रज्ञा-ऋद्धि प्राप्त होती है, जिसके प्रभाव से वह द्वादशांग और चतुर्दशपूर्व का विधिवत् अध्ययन न होने पर भी बारह अगों और चतुर्दशपूर्वो के ज्ञान का निरूपण कर सकता है । तथा उस महाप्राज्ञ श्रमण की बुद्धि गंभीर से गंभीर और कठिन से कठिन अर्थ का स्पष्ट विवेचन कर सकती है । कोई विद्याधारी श्रमण विद्यालब्धि प्राप्त कर दस पूर्व तक पढ़ता है; कोई रोहणी, प्रज्ञप्ति आदि महाविद्याओं व अंगुष्ठप्रश्न आदि अल्पविद्याओं के जानकार हो जाते हैं, फिर वे किसी ऋद्धिमान के वश नहीं होते। कई साधक पढ़ हुए विषय के अतिरिक्त विषयों का प्रतिपादन एवं विश्लेषण करने में कुशल होते हैं । उक्त विद्याधर-श्रमणों में से कइयों को बीज, कोष्ठ व पदानुसारी बुद्धि की लब्धि प्राप्त होती है। बीजबुद्धि के लब्धिधारी वे कहलाते हैं, जो ज्ञानावरणीयादि कर्मों के अतिशय क्षयोपशम से एक अर्थरूपी बीज को सुन कर अनेक अर्थ वाले बहुत से बीजों को उसी तरह प्राप्त कर लेता है जिस तरह एक किसान अच्छी तरह जोती हुई जमीन में वर्षा या सिंचाई के जल, सूर्य की धूप, हवा आदि के संयोग से एक बीज बो कर अनेक बीज प्राप्त कर लेता है। जैसेकोष्ठागार (कोठार) में रखे हुए विविध धान्य एक दूसरे में मिल न जायं, सड़ कर बिगड़ न जायं, इस
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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