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________________ ३२० योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश समझ लेना चाहिए। यह दूसरा अतिचार हुआ। तथा मूर्खता से बिना सोचे-विचारे बोलना, धृष्टता असभ्यता आदि से अंटसंट बोलना और बिना पूछे बकवास करना ; पापोपदेश नामक तीसरा अतिचार है। तथा कौत्कुच्य-कुत का अर्थ है कुत्सित- बुरी तरह से, कूच यानी चेष्टा . विदूषक या भांड के समान नेत्र, होठ नाक, हाथ, पैर और मुख की चेष्टा करना; अगों को सिकोड़ने की क्रिया करना; कौत्कुच्य कहलाता है । तात्पर्य यह है कि जिससे दूसरे को हंसी आए, अपनी लघुता प्रगट हो, इस प्रकार के वचन बोलना या ऐसी चेष्टाए करना ऐमा मुंह बनाना कौत्कुच्य नामक चौथा अतिचार है । तथा कंदर्प अर्थात् विषयवासना पैदा हो इस प्रकार के विकारी वचन बोलना या कामोत्तेजना पैदा हो, ऐसी विषयवर्द्धक बातें करना, कंदर्प नाम का अतिचार है। इस विषय में श्रावक की ऐमी समाचारी है कि श्रावक को कोई भी ऐसी बात नहीं कहनी या करनी चाहिए, जिससे अपने और दूसरे में मोह या विषयराग उत्पन्न हो ; अन्यथा उसे पांचर्वा कन्दर्प नामक अतिचार लगेगा। ये दोनों अतिचार प्रमादाचरण के योग से लगते हैं । इस प्रकार तीनों गुणव्रतों के अतिचार समाप्त हुए। अब शिक्षाव्रतों के अतिचारों के निर्देश का अवसर आया है। उनमें प्रथम सामायिक व्रत के अतिचार कहते हैं काय-वाङ-मनसां दुष्टप्रणिधानमनादरः। स्मत्यनुपस्थापनं च स्मताः सामायिके व्रते ॥११॥ अर्थ-काया, वचन और मन का दुष्टप्रणिधान, अनादर और स्मृतिभंग होना, ये सामायिकवत के पांच अतिचार हैं । व्याख्या - काया की पापमय व्यापार में प्रवृत्ति कायदुप्प्रणिधान है। शरीर के विभिन्न अवयवों हाथ, पैर आदि को संकोच कर नहीं रखने, बारम्बार इधर-उधर ऊँचा-नीचा करने से कायदुष्प्रणिधान होता है। संस्काररहित निरर्थक या संदिग्ध या समझ में न आए ऐसे अनेकार्थक वचन बोलना या पाप में प्रेरित करने वाले वचन बोलना; वागदुष्प्रणिधान है. तथा मन में क्रोध लोभ, द्रोह, ईर्ष्या, अभिमान आदि करना, सावद्य - पापव्यापार में चिन को विचलित करना, तथा मन में कार्य की आसक्ति से संभ्रम पैदा करना; मनो-दृष्प्रणिधान है। मन, वचन और काया इन तीनों के योग से ये दोनों प्रकार के अतिचार लगते हैं। कहा भी है देखे बिना या प्रमार्जन किये बिना, जमीन पर बैठना. खड़ा रहना इत्यादि प्रवृत्ति करने वाले को यद्यपि हिंसा नहीं लगती, परन्तु असावधानी से. प्रमाद-सेवन करने से उसका सामायिकव्रत शुद्ध नहीं माना जाता। सामायिक करने वाले को पहले अपनी विवेकबुद्धि से विचार करके फिर निरवधवचन बोलना चाहिए । अन्यथा सामायिकवत दूषित हो जायगा । जो श्रावकश्राविका सामायिक ले कर घर की चिन्ता किया करते हैं ; उनका मन आतंध्यान में डबा होने से, उनका सामायिकवत निष्फल व निरर्थक है। अनावर का अर्थ है-जैस-तैसे सामायिक ले लेना, किन्तु कोई उत्साह या आदर उसके प्रति नहीं रखना। जो सामायिक के लिए अनुकूलता होने पर भी नियमित समय पर सामायिक नहीं करता, बहुत कहने-सुनने पर जव कभी समय मिलता है, तब बेगार की तरह सामायिक का समय पूरा करता है, अथवा प्रबल प्रमादादि दोष से सामायिक करके उसी समय उसे पार लेता है; तो उसे अनादर नामक अतिचार लगता है । कहा भी है-'सामायिक उच्चारण करके उसी समय पार ले (पूर्ण करे), अथवा नियमित समय पर न करे ; मनमाने ढंग से स्वेच्छा से जब इच्छा हो, तब सामायिक कर ले, इस प्रकार :wise, अव्यवस्थितता एवं अनादर से सामायिक शुद्ध नहीं होता। यह चौथा
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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