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________________ सामायिकवत के अतिचारों का स्पष्टीकरण ३२१ अतिचार है । तथा स्मृत्यनुपस्थान-सामायिक करने का समय भूल जाना, मैंने सामायिक किया है या नहीं? अथवा करना है या अभी बाकी है ? यानी सामायिक जैसे उत्तम धर्मानुष्ठान को प्रबल प्रमादादि कारण से भूल जाय तो वहाँ स्मृत्यनुस्थापन नाम का अतिचार लगता है । क्योंकि धर्मानुष्ठान के स्मरण का उपयोग भूल जाने से मोक्ष साधक को अतिचार लगता है। कहा है कि 'जो प्रमादी सामायिक कब करना चाहिए? अथवा किया है या नहीं ? इत्यादि बात को भूल जाता है, उसने सामायिक की भी हो, तो भी उसकी सामायिक निष्फल समझना चाहिए । यह पांचवां अतिचार है। यहां शंका होती है कि 'काय-वुष्प्रणिधान आदि से सामायिक निरर्थक है', ऐसा पहले कहा गया है ; वस्तुतः इससे तो सामायिक का ही अभाव है और अतिचार तो व्रत-मलिनतारूप ही होता है । यदि सामायिक ही नहीं है तो उसका अतिचार कसे कहा जायेगा? इसलिए कहना चाहिए, यह सामायिक का अतिचार नहीं है, अपितु सामायिक का ही भंग है ! इसका समाधान करते हैं कि---भंग तो जान-बूझ कर होता है, परन्तु अज्ञानता या अनुपयोग से होने से अतिचार लगता है। फिर प्रश्न उठता है कि "द्विविध त्रिविध' से पाप-व्यापार-त्यागरूप सामायिक है, उसमें कायादुष्प्रणिधान आदि से तो उक्त नियम का भंग होता है। इसमे सामायिक का अभाव होता है और उसके भंग से होने वाले पाप का प्रायश्चित करना चाहिए, और मनोदुष्पणिधान में चंचल मन को स्थिर करना अशक्य है, इसलिए सामायिक करने के बजाय नहीं करना अच्छा है । कहा है कि 'अविधि से करने की अपेक्षा नहीं करना श्रेष्ठ है।' इसके उत्तर में कहते हैं 'तुम्हारी बात यथार्थ नहीं है, क्योंकि सामायिक 'द्विविध त्रिविध' से लिया हुआ होता है; उसमें मन-वचन-काया से पाप व्यापार नहीं करना और नहीं कराना, इस तरह छह कोटि (प्रकार) से पच्चक्खाण होता है। उनमें से एक प्रत्याख्यान भंग होने पर भी शेष तो अखडित रहता है, अर्थात् सामायिक का पूर्ण रूप से तो भंग नहीं होता है और उस अतिचार का भी 'मिच्छामि दुक्कड़ दे कर उसकी शुद्धि हो सकती है। और मन के परिणाम बिगड़ने पर साधक का इरादा वैसा नहीं होने से 'मिच्छामि दुक्कड' देने से वह शुद्ध हो जाता है। इस तरह सामायिक का सर्वथा अभाव नहीं है । सर्व-विरति सामायिक में उसी प्रकार जान लेना चाहिए ; क्योंकि गुप्ति-भंग होने पर भी साधुओं को सिर्फ 'मिथ्या दुष्कृत' का उच्चारणरूप दूसरा प्रायश्चित्त कहा है । सामायिक का अतिचार-सहित अनुष्ठान (क्रिया) भी अभ्यास करते-करते चिरकाल में जा कर शुद्ध बन जाता है। दूसरे धर्माचार्यों ने कहा भी है-'अभ्यास से ही कार्य-कुशलता आती है, व्यक्ति आगे बढ़ता जाता है। केवल एक बार जल-बिन्दु गिरने से पत्थर में गड्ढा नहीं पड़ता, बार-बार यह क्रिया होने पर होता है। इसलिए अविधि से करने की अपेक्षा नहीं करना अच्छा है ; यह कहना युक्तिसंगत नहीं है। इस प्रकार का वचन उपेक्षासूचक उद्गार है, और धर्मक्रिया के प्रति अरूचि का परिचायक है। शास्त्रज्ञों का कहना है कि अविधि से करने की अपेक्षा नहीं करना बेहतर है ; यह कथन ईर्ष्यावश कहा गया है।" क्योंकि अनुष्ठान नहीं करने वाले को बड़ा प्रायश्चित्त आता है, जबकि अविधि से करने वाले को लघु-प्रायश्चित्त आता है। क्योंकि धर्मक्रिया न करना तो प्रभु की आज्ञा का भंगरूप महादोष है और क्रिया करने वाले को तो केवल भविधि का दोष लगता है। कई लोग कहते हैं कि पौषधशाला में श्रावक को अकेले ही सामायिक करना चाहिए, बहुतों के साथ नहीं करना चाहिए । 'एगे अबीए इस शास्त्रवचन के प्रमाण से यह कथन एकान्तरूप से यथार्थ ४१
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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