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________________ अनर्थदण्डविरमणव्रत के ५ अतिचारों पर विवेचन ३१६ इस तरह पंद्रह कर्मादानों के स्वरूप का दिग्दर्शन कराया है। इसी तरह और भी अनेक सावद्यकर्म हैं ; जिसकी गिनती नही हो सकती । इस प्रकार सातवें व्रत के कुल बीस अतिचार कहे हैं- दूसरे भी पांच अतिचार कहे हैं । जो अतिचार जिरा व्रत के परिणाम की कलुषित करने वाला है, उसे उसी व्रत का अतिचार समझना । दूसरे भी पापकर्म हैं, उन्हे भी अतिचाररूप मानना अर्थात् पांच से अधिक भी अतिचार हो सकते हैं। क्योंकि अज्ञानता से कई भूलें हो मकती हैं। इसलिए प्रत्येक व्रत में यथायोग्य अतिचार समझ लेना चाहिए । यहाँ शका होती हैं, कि अंगारकर्म आदि कर्मादान खरकमं है, इन्हें अतिचार किस अपेक्षा से कहा ? क्योंकि ये सब कर्म स्वरकर्म और कर्मादानरूप हो हैं । उसका उत्तर देते है कि वस्तुतः ये सब खरकर्मरूप ही हैं, इसलिए इनके त्यागरूप व्रत अगीकार करने वाले को वह अतिचार लगता है । जो इरादेपूर्वक वैसा कार्य करता है, उसका तो व्रत ही भग हो जाता है । अब अनर्थदण्ड - विरतिव्रत के अतिचार कहते हैं - संयुक्ताधिकरणत्वमुपभोगातिरिक्तता । मौखर्यमथ कोत्कुच्यं कन्दर्पोऽनर्थदण्डगाः ॥ ११४ ॥ अर्थ – (१) हिंसा के साधन या अधिकरण संयुक्त रखना, (२) आवश्यकता से अधिक उपभोग के साधन रखना, बिना विचारे बोलना, भांड की तरह चेष्टा करना, कामोतेजक शब्दों का प्रयोग करना, ये पांच अतिचार अनथदण्डविरति के हैं। व्याख्या - अनर्थदण्ड से विरति वाले के लिए ये पांच अतिचार कहे है; जो इस प्रकार हैं— जिससे आत्मा दुर्गति का अधिकारी बने, वह अधिकरण कहलाता है । उसमें ऊखल, मूसल, हल, गाड़ी के साथ जुआ, धनुष्य के साथ बाण, इस प्रकार से अनेक अधिकरण (ओजार या उपकरण ) संयुक्त रखना या नजदीक रखना प्रथम अतिचार है। श्रावक को ऐसे अधिकरण संयुक्त नहीं रखने चाहिए; अपितु अलग-अलग करके रखने चाहिए | अधिकरण संयुक्त पड़े हों और कोई मांग बैठे तो उसे इन्कार नहीं किया जा सकता, और तितर-बितर पड़े हों तो अनायास ही इन्कार किया जा सकता है। यह अनर्थदण्ड का त्रिप्रदान रूप प्रथम अतिचार है । तथा पांचों इन्द्रियों के विषयों या साधनों के अत्यधिक उपयोग से उपभोग की अत्यधिकता होती है । जो भोग की अत्यधिकता है. वही उपलक्षण से उपभोग की अतिरिक्तता होती है । यह अतिचार प्रमादपूर्वक आचरण से लगता है । स्नान, पान, भोजन, चंदन, केसर, कस्तूरी वस्त्र, आभूषण आदि वस्तुओं को अपने या कुटुम्ब की आवश्यकता से अधिक संग्रह करना अथवा अतिमात्रा में इनका इस्तेमाल करना, प्रमाद नामक दूसरा अतिचार बताया है । इस सम्बन्ध में आवश्यकचूण आदि में वृद्धपरम्परा इस प्रकार है जो अधिक मात्रा में तेल, आंवला, साबुन आदि ग्रहण करता है, तालाब आदि जलाशयों में कूद कर या घुस कर स्नान करता है; अधिक मात्रा में जल खर्च करता है ; उससे जल में पोरे आदि जीव तथा अप्काय की अधिक विराधना होती है। श्रावक को ऐसा करना उचित व कल्पनीय नहीं है । तो फिर श्रावक के लिए क्या विधि है ? श्रावक को मुख्यतया अपने घर पर ही स्नान करना चाहिए । ऐसा साधन न हो तो घर पर ही तेल मालिश करके मस्तक पर आंवले का चूर्ण लगा कर जलाशय पर जाए और तालाब आदि किसी जलाशय पर पहुंच कर उसके किनारे बैठ कर किसी बर्तन में पानी ले कर अंजलि भर-भर कर स्नान करे। परन्तु जलाशय में घुस कर स्नान न करे। जिन पुष्पों में कुथुआ आदि सजीवों की संभावना हो, उनका त्याग करे। इसी तरह दूसरे साधनों के बारे में भी
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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