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________________ २५२ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश दोषाणां कारणं मद्य, मद्य कारणमापदाम् । रोगातुर बापथ्यं, तस्मान्मय विवर्जयेत् ॥१७॥ अर्व रुग्ण मनुष्य के लिए जैसे अपभ्य भोजन का त्याग करना जरूरी होता है ; वैसे ही चोरी, परस्त्रीगमन अनेक दोषों को उत्पत्ति के कारण तथा वध (मारपीट), बन्धन (गिर. फ्तारी) आदि अनेक संकटों के कारण व जीवन के लिए अपथ्यरूप मद्य का सर्वथा त्याग करना जरूरी है। व्याख्या शराब पीने से कौन-सा अकार्य (कुकृत्य) नहीं है, जिसे आदमी नही कर बैठता ? चोरी, जारी, शिकार, लूट, हत्या आदि तमाम कुकर्म मद्यपायी कर सकता है। ऐसा कोई कुकर्म नहीं, जिससे वह बचा रह सके । इसलिए यही उचित है कि ऐसी अनर्थ की जननी शराब को दूर से ही तिलांजलि दे दे । इस सम्बन्ध में कुछ आंतर श्लोक भी हैं, जिनका अर्थ यहाँ प्रस्तुत करते हैं - शराब के रस में अनेक जन्तु पैदा हो जाते हैं। इसलिए हिंसा के पाप से भीर लोग हिंसा के इस पाप से बचने के लिए मद्यपान का त्याग करें। मद्य पीने वाले को राज्य दे दिया हो, फिर भी वह असत्यवादी की तरह कहता है-नहीं दिया, किसी चीज को ले ली हो, फिर भी कहता है - नही ली। इस प्रकार गलत या अंटसंट बोलता है। बेवकूफ शराबी मारपीट या गिरफ्तारी आदि की ओर से निडर हो कर घर या बाहर रास्ते में सर्वत्र पराये धन को बेधड़क झपट कर छीन लेता है। शराबी नशे में चूर हो कर बालिका हो, युवती हो, बूढ़ी हो, ब्राह्मणी हो या चांडाली; चाहे जिस परस्त्री से साथ तत्काल दुराचार सेवन कर बैठता है । वह कभी गाता है, कभी लेटता है, कभी दौड़ता है, कभी क्रोधित होता है, कभी खुश हो जाता है, कभी हंसना है, कभी रोता है. कभी ऐंठ में आ कर अकड़ जाता है, कभी चरणो झुक जाता है, कभी इधर-उधर टहलने लगता है, कभी खड़ा रहता है। इस प्रकार मद्यपायी अनेक प्रकार के नाटक करता है। सुनते हैं । कृष्णपुत्र शांब ने शराब के नशे में अन्धे हो कर यदुवंश का नाश कर डाला और अपने पिता की बसाई हुई द्वारिकानगरी जला कर भस्म करवा दी। प्राणिमात्र को कवलित करने वाले काल-यमराज के समान मद्य पीने वाले को बार-बार पीने पर भी तृप्ति नही होती। अन्य धर्म-सम्प्रदायों के धर्मग्रन्थों-पुराणों एवं लौकिक ग्रन्थों में मद्यपान से अनेक दोष बताए हैं और उसे त्याज्य भी बताया है । इसी मद्यनिषेध के समर्थन में कहते हैं-'एक ऋषि बहुत तपस्या करता था। इन्द्र ने उसको उग्रतप करते देख अपने इन्द्रासन छिन जाने की आशंका से भयभीत हो कर उस ऋषि को तपस्या से भ्रष्ट करने के लिए देवांगनाएं भेजीं। देवांगनाओं ने ऋपि के पास आ कर उसे नमस्कार, विनय, मृदुवचन, प्रशसा आदि से भलीभांति खुश कर दिया। जब वे वरदान देने को तैयार हई तो ऋषि ने अपने साथ सहवास करने को कहा। इस पर उन देवांगनाओं ने शर्त रखी-"अगर हमारे साथ सहवास करना चाहते हों तो पहले मद्य-मांस का सेवन करना होगा।" ऋषि ने मद्य-मांससेवन को नरक का कारण जानते हुए भी कामातुर हो कर मद्य-मांस का सेवन करना स्वीकार किया । अब ऋषि उन देवांगनाओं के साथ बुरी तरह भोग में लिपट गया। अपनी की-कराई सारी तपस्या नष्ट कर डाली । मच पीने से उसकी धर्म-मर्यादा नष्ट हो गई ; अर्थात् विषयग्रस्तता और मदान्धता से उस ऋषि ने मांस खाने के लिए बकरे को मारने आदि के सभी कुकृत्य किए। अतः पाप के मूल, नरक के
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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