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________________ अन्नसंग्रहलोलुप तिलकसेठ और अर्थलोलुप नन्दराजा दया नहीं आती थी। एक बार किसी निमित्तज्ञ ने उससे कहा-'अगले साल दुकाल पड़ेगा ।" यह सुन कर उसने अपना पूरा धन लगा कर अनाज खरीदा । इतना अन्न खरीद लेने पर भी उसे संतोष नहीं हुआ । इसलिए धनाढ्यों से ब्याज पर धन उधार ले कर अनेक किस्म के अनाजों को खरीद कर संग्रह किया । अनाज भरने के लिए गोदामों की कमी पड़ी तो अपने घर को भी अनाज से भर दिया। 'लोभी मनुष्य क्या नहीं करता ?" इतना सब कर लेने के बाद वह उदासीन-सा हो कर जगत् के शत्रु दुष्काल को मित्र मान कर दुष्काल के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा। परन्तु हुआ उसके दुश्चिन्तन के विपरीत ही । वर्षाऋतु के प्रारम्भ में ही उसके हृदय को चीरते हुए-से बादल आकाश में उठे और गरजने लगे। कुछ ही देर में चारों ओर मूसलधार वृष्टि होने लगी। इसके कारण उसके द्वारा संग्रह किये हुए गेहूं, मूंग, चावल, चने आदि विभिन्न अनाज सड़ने लगे।" यह देख कर असंतुष्ट तिलक सेठ विलाप करने लगा-हाय ! मेरा अनाज नष्ट हो जायगा । अब मेरे हाथ से अनाज चला जायगा।" यों हाय-हाय करते-करते अतप्त होने से उसका हृदय फट गया, जिससे तत्काल मर कर वह नरक में गया। यह है तिलकश्रेष्ठी के द्वारा अतिलोभ का परिणाम ! घनलोलुप नन्द राजा प्राचीनकाल में इन्द्रनगर का अनुसरण करने वाला, अति मनोहर पाटलिपुत्र नामक श्रेष्ठ नगर था। वहाँ शत्रुवर्ग को वश करने में इन्द्र के समान त्रिखण्डाधिपति नन्द नाम का राजा राज्य करता था। जिन-जिन पर टेक्स (कर) नहीं लगा हुआ था, उन-उन पर उसने कर लगा दिया। जिन-जिन पर पहले से कर लगा हुआ था, उन पर अधिक कर लगा दिया और अधिक कर देने वाले पर भी अन्यान्य कर लगा दिये । इस प्रकार वह प्रजा में से किसी पर कोई सी अपराध मढ़ कर उससे दण्ड के रूप में धन ले लेता था। वह सदा यही कहा करता-'राजा छल कर सकता है, किन्तु हल नहीं कर सकता। जैसे समस्त जलों का पात्र समुद्र है, वैसे समस्त अर्थ का पात्र राजा है, दूसरा कोई नहीं !' और इस तरह निर्दय हो कर येन-केन उपायेन लोगों से धन बटोरने की कोशिश करता था। अतः कुछ ही वर्षों में लोग निर्धन हो गए । भेड़-बकरियों को चराने के लिए भूमि पर घास भी नहीं मिलता था। उसने विनिमय के लिए सोने की मुद्रा का नामोनिशान उड़ा दिया और बदले में चमड़े के सिक्के चलाये। वह पाखण्डियों और वेश्याओं को भारी दण्ड दे कर बदले में उनसे धन ग्रहण करता था।' अग्नि सर्वमक्षी होने से किसी को भी नहीं छोड़तो' लोग उसके रवये को देख कर कहने लगे-'भगवान् महावीर के निर्वाण के १६०० वर्ष के बाद कल्की राजा होने वाला है ; उस भविष्यवाणी के अनुसार क्या यही तो कल्की राजा नहीं है ?' नन्दराजा का प्रचण्ड कोप देख कर कांसे या पीतल के बर्तन में भोजन करने के बदले लोग मिट्टी के बर्तन में भोजन करने लगे। कई लोगों ने तो निर्भय हो कर रहने की दृष्टि से अपने बर्तन दूसरों को दे दिये, यह सोच कर कि बर्तन होंगे तो राजा के द्वारा छीने जाने का डर रहेगा। इस प्रकार अतिलोभी नन्द राजा ने सोने के पर्वत बनाए, कुए में भी सोना भर दिया और अपने समस्त भंडार सोने से भर दिये, फिर भी उसकी इच्छा पूरी नहीं हुई। ___अयोध्या के एक हितैषी राजा ने जब उससे रवैये की बातें सुनी तो उसे बड़ा दुःख हया । उसने नन्दराजा को समझाने के लिए एक वार्तालाप करने में चतुर दूत को उसके यहां भेजा। दूत वहाँ पहुंचा और सर्वस्व लक्ष्मी को हड़पने के महत्वाकांक्षी निस्तेज एवं शोभारहित राजा को देख कर उनसे ३०
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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